माटी कुदम क्रेंदी – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
माटी कुदम क्रेंदी यार
वाह-वाह माटी दी गुलज़ार| टेक|
माटी घोड़ा, माटी जोड़ा,
मादी दा असवार|
माटी माटी नूं दोड़ावे,
माटी दा खड़कार|
माटी माटी नूं मारन लग्गी,
माटी दे हथियार|
जिस माटी पर भूति माटी,
सो माटी हंकार|
माटी बाग़ बग़ीचा माटी,
माटी दी गुलज़ार|
माटी माटी नूं वेखण आई,
माटी दी ए बहार|
हस खेड फिर माटी होवै,
सौंदी पाउं पसार|
बुल्ल्हा एह बुझारत बुज्झें,
तां लाह सिरों भुईं मार|
माटी की उछल-कूद
माटी उछल-कूद रही है मित्र| इस माटी की रौनक़ भी क्या ख़ूब है|
माटी का घोड़ा है, उस पर माटी का ही झोल है और माटी का ही सवार है| माटी को माटी ही दौड़ा रही है| माटी का ही कोड़ा है और उसकी चटाख आवाज़ भी माटी की है| माटी माटी को पीट रही है| उसके हथियार भी माटी के ही हैं|
जिस माटी के पास कुछ अधिक ही माटी है, उसे व्यर्थ का अहंकार हो जाता है| यह बाग़-बग़ीचा भी माटी का है, फूलों की क्यारी भी मोटी की है|
माटी ही माटी को देखने आई है, यह सारी रौनक़ माटी की ही है| संसार के भौतिक आनन्द लूटकर (मनुष्य) पुन: माटी हो जाता है| और पावं पसारकर मृत्यु की गोद में सो जाता है| बुल्लेशाह कहता है कि इस पहेली को समझना चाहते हो, तो सारा बोझ सिर से उतारकर धरती पर पटक दो|
सब-कुछ मिट्टी से बना है और व्यर्थ का अहंकार बढ़ाने के बाद भी अन्तत: व्यक्ति मिट्टी में मिल जाता है, इस सर्वज्ञात तथ्य को इस काफ़ी में अत्यधिक सहजता से व्यक्त किया गया है| इसके बोल सीधे हृदय पर असर डालने वाले हैं|