इश्क़ दी नवियों नवीं बहार – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
इश्क़ दी नवियों नवीं बहार| टेक|
जां मैं सब़क इश्क़ दा पढ़िआ,
मसजिद कोलों जियूड़ा डरिआ,
पुछ पुछ ठाकरद्वारे वेड़िआ,
जित्थे वजदे नाद हज़ार|
वेद क़ुरानां पढ़-पढ़ थक्के,
सिज़दे करदिआं घस गये मत्थे,
ना रब तीरथ ना रब मक्के,
जिस पाया तिस नूर अनवार|
फूक मुसल्ला भन्न सुट लोटा,
ना फड़ तसबी आसा सोटा,
आशक़ कहंदे दे-दे होका,
तरक हलालों खा मुरदार|
हीर-रांझे दे हो गये मेले,
भुल्ली हीर ढूंडेंदी बेले,
रांझण यार बग़ल विच खेले,
सुरत न रह्या सुरत संभार|
इश्क़ का आनन्द नित्य नया
जिसे प्रेम का रहस्य ज्ञात हो जाता है और प्रभु का प्रकाश अनुभव होने लगता है, उसके लिए इश्क़ का आनन्द नित्य नया होता है| बुल्लेशाह कहते हैं कि जब मैंने इश्क़ की दीक्षा ली, तो मेरा अन्तर्मन मस्जिद से डरने लगा| पूछते-पूछाते, मैं ठाकुरद्वारे जा घुसा, जहां हज़ारों नाद बज रहे थे| (आत्मज्ञान और प्रभु की कृपा हो जाने पर जाति-धर्म सब छुट जाते हैं) लोग वेद और क़ुरान पढ़-पढ़कर थक रहे हैं, सिजदा करते-करते माथे घिस गए हैं, लेकिन इससे क्या प्रभु मिलता है? भगवान न तो तीर्थ-स्थानों पर है और न मक्के में| वह जिसे भी प्राप्त हुआ वह नूर-अनवार (प्रकाश रूप) हो जाता है| प्रभु को प्राप्त करना है, तो मुसल्ले को फूंक दो, लोटे को तोड़ दो और तसबीह, आसा, सोटा हाथ में कुछ मत लो| आशिक़ पुकार- पुकारकर कर रहा है कि उसे पाने के लिए हलाल और हराम सब त्याग दे (अर्थात हलाल और हराम में अन्तर करना छोड़ दे) हीर और रांझे का मिलन हो गया, भ्रमित हीर यों ही (रांझे को) बेले में ढूंढती रही, उसका प्रिय रांझा तो उसकी बग़ल में ही खेल रहा था, उसे होश ही न था| अरी होश में आ, तभी तो रांझे से मिलन सम्भव होगा|