इक रांझा मैनूं लोड़ीदा – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
इक रांझा मैनूं लोड़ीदा| टेक|
कुन फ़यकुन1 अग्गे दीआं लग्गीआं|
नेहुं न लगड़ा चोरी दा|
आप छिड़ जांदा नाल मज्झीं दे,
सानूं क्यों बेलिओं होड़ीदा?
रांझे जेहा मैनूं होर न कोई,
मिन्नतां कर कर मोड़ीदा|
मान वालियां दे नैंन सलोने,
सूहा दुपट्टा गोरी दा|
अहद अहमद विच फ़रक न कोई,
इक रत्ती भेत मरोड़ीदा
एक रांझा मैनूं लोड़ीदा
मुझे एक रांझे की जरूरत है
आत्मा-परमात्मा के आदिकाल से चले आ रहे प्रेम का वर्णन करते हुए इस काफ़ी में कहा गया है कि मुझे केवल एक रांझा (सद्दगुरु) मेरा प्रिय चाहिए|
संसार-उत्पत्ति से पहले से ही मुझे उससे प्यार था और हमारा वह प्यार चोरी-छिपे का नहीं, विश्वविदित है| वह रांझा आप तो चला जाता है भैंसें चराने, तब हमें अकेले जाने से क्यों रोकता है? रांझे के समान हमें कोई नहीं जंचता
(कोई सद्दगुरु जैसा नहीं), जब वह जाने लगता है तो हम मिन्नतें करके उसे रोकते हैं| मानिनि के नयन सलोने हैं और उस गोरी के सिर पर गहरा लाल (प्रेम रंग) दुपट्टा है|
अहद (अल्ला) और अहमद (मुर्शिद) में कोई अन्तर नहीं, बस, मीम की एक मरोड़ी-भर का अन्तर है| मुझे तो बस एकमात्र रांझा चाहिए, जो मेरा प्रिय है, प्रियतम है|