दिल लोचे माही यार नूं – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
दिल लोचे माही यार नूं| टेक|
इक हस हस गल्लां कर दियां,
इक रोंदियां धोंदियां फिरदियां,
कहो फुल्ली बसन्त बहार नूं,
दिल लोचे माही यार नूं|
मैं न्हाती धोती रैह् गई,
कोई गंढ सजण दिल बैह् गई,
भाह लाविये हार-शंगार नूं ,
दिल लोचे माही यार नूं|
मैं दूतियां घाइल कीती आं,
सूलां घेर चुफेरों लीती आं,
धर आ माही दीदार नूं,
दिल लोचे माही यार नूं|
दिल तड़प रहा प्रिय मिलन के लिए
प्रिय के वियोग में विरहिणी के दुख और ईर्ष्या भाव का सुन्दर चित्रण करते हुए इस काफ़ी में उसकी मनोदशा का चित्रण है| विरहिणी का मन प्रिय से मिलने के लिए तड़प रहा है|
उसे इस बात से ईर्ष्या हो रही है कि इस प्रियतम से कुछ सखियां (साथी) हंस-हंसकर बातें करती हैं, कुछ रोती-चीख़ती भटक रही हैं| इस बसन्त बहार से कहो कि मेरा मन प्रिय के मिलन के लिए तड़प रहा है|
मैं नहा-धोकर तैयार थी, किन्तु प्रिय के साथ न चल सकी, इससे प्रिय के मन में न जाने क्या गांठ पड़ गई| अब इस साज-श्रृंगार को क्या आग लगाऊं? वह मिल नहीं रहा है और मन प्रिय मिलन के लिए तड़प रहा है|
मुझे तो आसपास घिरी इन दूतियों-कुटनियों ने घायल कर दिया है, चारों ओर से शूलों ने मुझे बेध रखा है| प्रिय, घर लौट आओ और दर्शन दो| मैं अपने मन की बात बता रही हूं कि मेरा मन प्रिय-मिलन के लिए तड़प रहा है|