बेक़ैद – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
मैं बेक़ैद, मैं बेक़ैद;
ना रोगी, ना वैद|
ना मैं मोमन, ना मैं फाक़र,
ना सैयद, ना सैद|
चौधीं तबक़ीं सैर असाडा,
किते ना हुंदा क़ैद|
ख़राबात है जात असाडी,
ना सोमा, ना ऐब|
बुल्ल्हेशाह दी ज़ात की पुच्छनै,
ना पैदा ना पैद|
मैं बन्धन-मुक्त
मैं किसी क़ैद में नहीं, किसी भी बन्धन में बंधा नहीं रह गया हूं| मैं न तो रोग की क़ैद में हूं, और न वैद की क़ैद में|
मैं मोमिन1 नहीं हूं और काफ़िर2 भी नहीं हूं| मैं सैयद3 हूं, और सैद4 भी नहीं हूं|
चौद हो तनकों5 (भुवनों) में हम घूमते हैं| सर्वत्र आना-जाना होने पर भी हम कहीं क़ैद नहीं होते| हम कहीं किसी मोहपाश में नहीं बंधते|
हमारी प्रकृति ही मस्ती या बेख़ुदी की है| हम अपने में न कोई शोभाशाली गुण मानते हैं और न हममें कोई अवगुण है|
बुल्लेशाह के वजूद की बात क्या पूछते हो, वह तो है ही नहीं, गुम है| न पैदा हुआ है और न पैदा होगा अर्थात वह आवागमन से मुक्त हो गया है|