बुल्ल्हिआ, की जाणां मैं कौन – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
बुल्ल्हिआ, की जाणां मैं कौन?|टेक|
ना मैं मोमिन विच्च मसीतां,
ना मैं विच्च कुफ़र दियां रीतां,
ना मैं पाक आं विच पलीतां,
ना मैं मूसा ना फिरऔन|
ना मैं विच्च पलीती पाकी,
ना विच शादी, ना ग़मना की,
ना मैं आबी ना मैं ख़ाकी,
ना मैं आतिश ना मैं पौन|
ना मैं भेत मज़ब दा पाया,
ना मैं आदम-हव्वा जाया,
ना कुछ अपणा नाम धराया,
ना विच बैठण ना विच भौण|
अव्वल आख़र आप नूं जाणां,
ना कोई दूजा आप सिआणा,
बुल्ल्हिआ औह खड़ा है कोन?
बुल्लेशाह, क्या जानूं मैं कौन हूं
साधना की एक ऐसी अवस्था आती है, जिसे सन्त बेखुदी कह लेते हैं, जिसमें उसका अपना आपा अपनी ही पहचान से परे हो जाता है| इसीलिए बुल्लेशाह कहते हैं कि मैं क्या जानूं कि मैं कौन हूं?
मैं मोमिन नहीं कि मस्जिद में मिल सकूं, मैं कुफ़्र के मार्ग पर चलने वाला भी नहीं हूं, न मैं पलीत (पवित्र) लोगों के बीच पवित्र व्यक्ति हूं और न ही पवित्र लोगों के बीच अपवित्र हूं| मैं न मूसा हूं और फ़िरऔन भी नहीं हूं|
इस प्रकार मेरी अवस्था कुछ अजीब है, न मैं पवित्र लोगों के बीच, न अपवित्र लोगों के बीच हूं और मेरी मनोदशा न प्रसन्नता की है, न उदासी की| मैं जल अथवा स्थल में रहने वाला भी नहीं हूं, ना मैं आग हूं और पवन भी नहीं|
मज़हब का भेद भी मैं नहीं पा सका| मैं आदम और हव्वा की सन्तान नहीं हूं, इसलिए मैंने अपना कोई नाम भी नहीं रखा है| न मैं जड़ हूं और जंगम भी नहीं हूं|
कुल मिलाकर कहूं तो मैं किसी को नहीं जानता| मैं बस अपने-आप को ही जानता हूं, अपने से भिन्न किसी दूसरे को मैं नहीं पहचानता| बेख़ुदी अपना लेने के बाद मुझसे बढ़कर सयाना और कौन होगा? बुल्लेशाह कहते हैं कि मैं तो यह भी नहीं जानता कि भला वह कौन खड़ा है|