शिरडी के दिन रामनवमी का मेला – श्री साईं कथा व लीला
साईं बाबा के एक भक्त केपर गांव में रहते थे, उनका नाम गोपालराव गुंड था| उन्होंने संतान न होने के कारण तीन-तीन विवाह किये, फिर भी उन्हें संतान सुख प्राप्त न हुआ| अपनी साईं भक्ति के परिणामस्वरूप उन्हें साईं बाबा के आशीर्वाद से एक पुत्र संतान की प्राप्ति हुई| पुत्र संतान पाकर उनकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा|
“शिरडी के दिन रामनवमी का मेला” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio
गोपालराव गुंड को सन् 1897 में पुत्र की प्राप्ति हुई थी| पुत्र-प्राप्ति की खुशी में उनके मन में यह विचार आया कि शिरडी में उन्हें कोई मेला या उर्स अवश्य लगवाना चाहिए| अपने इस विचार के बारे में उन्होंने शिरडी में रहने वाले साईं भक्त तात्या पाटिल, दादा कोते पाटिल, माधवराज आदि से मिलकर उन्हें अपने विचारों से अगवत कराया| उन सभी को यह विचार बड़ा पसंद आया| फिर उन्हें इस बारे में साईं बाबा की अनुमति और आश्वासन भी मिल गया| लेकिन मेला लगाने के लिए सरकारी अनुमति प्राप्त करना भी आवश्यक था| फिर इसके लिए एक पत्र कलेक्टर को भेजा गया, परन्तु गांव के पटवारी ने उस पर अपनी आपत्ति जता दी, इसलिए अनुमति नहीं मिल सकी|
इसके बारे में साईं बाबा की अनुमति पहले ही प्राप्त हो चुकी थी| अत: इसके बारे में एक बार फिर से कोशिश की गयी| इस बार सरकारी अनुमति बिना किसी परेशानी के मिल गयी| इस तरह से साईं बाबा की आज्ञा से रामनवमी वाले दिन उर्स भरने का निर्णय हुआ| रामनवमी के दिन उर्स भरना हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक था| यह अद्देश्य पूर्ण रूप से सफल रहा| इस अवसर पर कच्ची दुकानें बनाई गईं और कुश्तियां भी आयोजित की गईं| रामनवमी वाले दिन साईं बाबा का पूजन, भजन, गायन, वाद्य यंत्रों की मधुर ध्वनि के साथ ध्वजों को लहराते हुए संचालन किया गया| उस दिन शिरडी में सभी दिशाओं से तीर्थयात्रा इस उत्सव को मनाने के लिए शिरडी में आये|
गोपालराव गुंड के एक मित्र घमूअण्णा कासार जो अहमदनगर में रहा करते थे, वे भी नि:संतान थे| उन्हें भी साईं बाबा के आशीर्वाद से पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी| इसलिए गोपालराव ने उनसे भी उर्स के लिए एक ध्वज देने को कहा| एक अन्य ध्वज जागीरदार नाना साहब निमोलकर ने दिया| दोनों ध्वजों को बड़े धूमधाम के साथ पूरे गांव से निकालने के बाद मस्जिद तक पहुंचा दिया गया| फिर उन्हें मस्जिद के दोनों कोनों पर फहरा दिया गया| तब से लेकर यह परम्परा आज तक उसी तरह से चली आ रही है| सन् 1911 से इस मेले में राम-जन्म का उत्सव भी मनाया जाने लगा है|