जो आदमी दूसरी कौम से जितनी नफरत करता है, समझ लीजिये कि वह खुदा से उतनी ही दूर है! – प्रदीप कुमार सिंह
ब्रिटिश शासन के विरूद्ध पीड़ितों और गरीब किसानों की आवाज को बुलंद करने वाले अब गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे साहसी पत्रकार गिनती के दिखते हैं जो सत्य की अखण्ड ज्योति को जलाने के लिए सदा जीते हो तथा उसी के लिए शहीद हो जाते हैं। पत्रकारिता जगत का जो पत्रकार सत्य के रूप में ईश्वर को पहचान लेता है तो फिर दुनिया की कोई ताकत उसे सच्चाई को उजागर करने से रोक नहीं सकती है। महान स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेवी, पत्रकार, आजादी के इस दीवाने और सांप्रदायिक सौहार्द के पुजारी गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में हुआ था। इनके पिता श्री जयनारायण गरीब तथा धार्मिक प्रवृत्ति के एक अच्छे इंसान थे। वह ग्वालियर रियासत के मुंगावली में एक स्कूल में हेडमास्टर थे। गणेश की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा उर्दू और अंग्रेजी में हुई। ‘विद्यार्थी’ ने 1905 में हाईस्कूल और 1907 में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में एंट्रेंस परीक्षा पास करने के बाद जब उन्होंने इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला में दाखिला लिया, तो उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हुआ।
प्रसिद्ध लेखक पंडित सुन्दर लाल के साथ वे हिंदी साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ के संपादन में उनकी सहायता करने लगे। कानपुर के करेंसी, पृथ्वीनाथ हाई स्कूल में अध्यापन के दौरान उन्होंने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) और हितवार्ता जैसे प्रकाशनों में लेख लिखे। पत्रकारिता, सामाजिक कार्य और स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ाव के दौरान उन्होंने ‘विद्यार्थी’ उपनाम अपनाया। उनका कहना था कि मैं अपने नाम के साथ विद्यार्थी शब्द इसलिए जोड़ता हूँ क्योंकि मेरा मानना है कि मनुष्य जिंदगी भर सीखता रहता है हम विद्यार्थी बने रहते हंै। उनका पत्रकारिता से जुड़े बन्धुओं से कहना था कि जब किसी के बारे में लिखों तो यह समझ कर लिखो की वह तुम्हारे सामने बैठा है और तुम से जवाब तल्ब कर सकता है।
उसी दौर में उनके लेखन ने हिंदी पत्रकारिता जगत के अगुआ पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी का ध्यान अपनी ओर खींचा। द्विवेदी जी ने सन 1911 में उन्हें अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में उप-संपादक के पद पर कार्य करने का प्रस्ताव दिया, पर विद्यार्थी की रूचि समाचार, सम-सामयिक और राजनीतिक विषयों में ज्यादा थी, इसलिए उन्होंने हिंदी साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ में नौकरी कर ली।
विद्यार्थी 1913 में कानपुर पहुंच गए और एक क्रांतिकारी पत्रकार और स्वाधीनता कर्मी के तौर पर ‘प्रताप’ पत्रिका निकालकर उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना शुरू कर दिया। प्रताप के माध्यम से वह पीड़ितों, किसानों, मिल-मजदूरों और दबे-कुचले गरीबों का दुख उजागर करने लगे, नेकी की राह पर चलने की कीमत उन्हंे चुकानी पड़ी। अंग्रेज सरकार ने उन पर कई मुकदमे किए, भारी जुर्माना लगाया और कई बार गिरफ्तार कर जेल भी भेजा।
कहते हैं 1916 में महात्मा गांधी से पहली मुलाकात के बाद उन्होंने अपने आप को पूर्णतया स्वाधीनता आन्दोलन में समर्पित कर दिया। उन्होंने साल 1917-18 में ‘होम रूल’ आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई और कानपुर में कपड़ा मिल मजदूरों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया। साल 1920 में उन्होंने ‘प्रताप’ का दैनिक संस्करण निकालना शुरू कर दिया। इसी साल उन्हें रायबरेली के किसानों की लड़ाई लड़ने के लिए 2 साल के कठोर कारावास की सजा हुई। महाराणा प्रताप ने जिस तरह अपनी बहादुरी से मुगल साम्राज्य को ललकारा था उसी से प्रेरणा लेकर विद्यार्थी जी ने प्रताप के प्रकाशन द्वारा लोगों के सोए हुए स्वाभिमान तथा आजादी की अखण्ड ज्वाला जलायी थी।
1922 में विद्यार्थी जेल से रिहा हुए पर अंग्रेजी सरकार ने उन्हें भड़काऊ भाषण देने के झूठे आरोप में फिर गिरफ्तार कर लिया। साल 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया। कानपुर अधिवेशन में कांग्रेस के राज्य विधान सभा चुनावों में भाग लेने के फैसले के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी 1925 में कानपुर से ही यू.पी. विधानसभा के लिए चुने गए और 1929 में कांग्रेस पार्टी की मांग पर विधान सभा से त्यागपत्र दे दिया। साल 1929 में ही उन्हें यू.पी. कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुना गया और राज्य में सत्याग्रह आन्दोलन के नेतृत्व की बड़ी जिम्मेदारी दी गई। उसके बाद 1930 में उन्हें गिरफ्तार कर एक बार फिर जेल भेज दिया गया, जिसके बाद उनकी रिहाई गांधी-इरविन पैक्ट के बाद 9 मार्च, 1931 को हुई।
गणेश शंकर विद्यार्थी और उनका अखबार ‘प्रताप’ आज भी पत्रकारों और पत्रकारिता के लिए आदर्श माने जाते हैं। भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, सनेही, प्रताप नारायण मिश्र जैसे तमाम देशभक्तों ने ‘प्रताप प्रेस’ की ‘ज्वाला’ से राष्ट्र प्रेम को घर-घर तक पहुंचा दिया था। जब विद्यार्थी की कलम चलती थी, तो अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिल जाती थीं। गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ इतिहास के एक ऐसे कलम के सिपाही का नाम है जिनकी लेखनी से अंग्रेज सरकार हिलती थी। विद्यार्थी हिन्दी भाषा के एक ऐसे रचनाकार थे। गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे महापुरूषों का भारत में जन्म लेना प्रत्येक देशवासी का सौभाग्य है। गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ की प्रेरणादायी जीवनी विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए अत्यन्त ही अनुकरणीय है। स्वतंत्रता सेनानी तथा क्रान्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी कलम और धारदार लेखनी को हथियार बनाकर आजादी की लड़ाई में बड़-चढ़ कर भाग लेने वाले में अगली पंक्ति के महान व्यक्ति थे। अंग्रेज हुकूमत अन्याय के खिलाफ उनकी कलम खूब चली जिसने उस समय के नौजवानों के अन्दर जल रही चिन्गारी को ज्वाला के रूप में प्रज्जवलित कर दिया था।
उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगे के बीच भाई-चारा कायम करते हुए हिंसक भीड़ की चपेट में आकर उन्होंने मात्र 41 वर्ष की अवस्था में 25 मार्च 1931 को अपनी इस नाशवान देह को छोड़ दिया था। एक ऐसा मसीहा जिसने इस दंगे के दौरान भी हजारों लोगों की जान बचाई थी और खुद धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ गया। महापुरूष सदैव अमर रहते हैं। आत्मा अजर अमर अविनाशी है। वर्तमान वैश्विक युग में गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ सदैव अपने साहसिक पत्रकारिता तथा कलम के एक बहादुर सिपाही के रूप में सदैव जीवित रहकर मानव जाति को जय जगत, विश्व बन्धुत्व तथा वसुधैव कुटुम्बकम् के सार्वभौमिक विचारों के जीने की प्रेरणा देते रहेंगे। आज की तारीख में यदि विद्यार्थी जी जीवित होते तो आधुनिक तकनीकी तथा विज्ञान के समन्वय से ग्लोबल विलेज का स्वरूप धारण कर चुकी मानव जाति में विश्व एकता तथा विश्व शान्ति के विचारों को विकसित करने पूरी तरह अपनी कलम के माध्यम से जुझते रहे होते।
विद्यार्थी जी जैसे कलम के सिपाही के जुनून तथा जज्बे के आधार पर पूरे विश्वास के साथ कह सकते है कि कलम सबसे शक्तिशाली हथियार है जिससे विश्व को बदला जा सकता है। इस युग के अनेक क्रांतिकारी पुस्तकों के महान लेखक विश्वात्मा भरत गांधी भी अपनी कलम के सबसे शक्तिशाली हथियार से प्रत्येक वोटर को वोटरशिप दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। आज पूरे विश्व के लोग सोशल मीडिया के कारण एक-दूसरे से जुड़ गए हैं। लेकिन नागरिकता के 400 साल पुराने कानून अभी भी इस रिश्ते को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। इसलिए अब जरूरी हो गया है कि नागरिकता तय करने का अधिकार लोगों को दे दिया जाए, सरकारें यह अधिकार छोड़ दें। साथ ही यह भी जरूरी हो गया है कि नई परिस्थिति में लोगों को अंतरराष्ट्रीय स्तर की और वैश्विक स्तर की नागरिकता पर अंतर्राष्ट्रीय संधि हो। व्यक्ति को किस स्तर की नागरिकता चाहिए, यह व्यक्ति ही तय करें। ठीक उसी तरह, जैसे वह अपना धर्म तय करता है।
विश्वात्मा भरत गांधी का मानना है कि आज उदारीकरण के युग में बाजार और अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के कारण गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद जैसी देश की अधिकांश समस्याओं का समाधान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही हो सकता है। इसलिए नागरिकता को देश के डिब्बे में बंद रखना अब खतरनाक हो गया है। यह साक्षात दिखाई दे रहा है कि जन्मजात रूप से कोई व्यक्ति जाति प्रेमी होता है, कोई दूसरा धर्म प्रेमी होता है, तीसरा क्षेत्र प्रेमी होता है, चैथा देश प्रेमी होता है और पांचवां विश्व प्रेमी होता है। उन्होंने कहा कि यदि ऋग्वेद के रचयिता विश्व से प्रेम करना चाहते हैं तो उनसे देश से प्रेम कराना उनके साथ मानसिक बलात्कार करना है।
उन्होंने नागरिकता के पीछे मौजूद राजनीतिक अंधविश्वासों का ऐतिहासिक कारण बताते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति में संपूर्ण विश्व ही राष्ट्र रहा है किंतु ब्रिटेन के शासन के दौरान राष्ट्रवाद के संकीर्ण परिभाषा का जहर भारत में फैलाया गया और आज ब्रिटेन द्वारा फैलाए गए इस जहर को कुछ लोग अमृत मान कर पी रहे हैं। खुद यूरोप, जिसने संकीर्ण राष्ट्रवाद को पैदा किया, उसको प्रचारित-प्रसारित किया, उसी ने खतरा भापकर संकीर्ण राष्ट्रवाद से अपना पिंड छुड़ा लिया और 28 देशों को मिलाकर यूरोपियन यूनियन अर्थात यूरोपिन सरकार बना ली।
वर्तमान में भारत में राजनीति के क्षेत्र में ब्रिटिश राष्ट्रवाद के शिकार लोगों का दुर्भाग्यवश कब्जा हो गया है। जो अपना विश्व इतिहास बनाने के लिए और राजनीतिक सत्ता पर कब्जा बनाए रखने के लिए राजनीतिक अंधविश्वास के आवेग तथा अज्ञानता में देश को दंगा-फसाद और युद्ध के मुंह में झोंकने के लिए आमादा हैं। कुछ गुमराह मीडिया भी इसमें अपनी अज्ञानता के कारण बड़ी भूमिका निभा रहा है। इस युग का सबसे दुर्भाग्य है कि प्रताप जैसे समर्पित प्रिन्ट मीडिया की जगह आज सभी बड़े चैनलों तथा समाचार पत्रों पर उनके मालिक खरबपतियों का कब्जा है। इनकी पहुंच अति आधुनिक तकनीक के कारण हर मस्तिष्क, हर घर तथा हर परिवार में हो गयी है। जो नकली मुद्दे उनके द्वारा दिखाये जाते हैं भोली-भाली जनता उसे ही सच्चाई समझ लेती है। जबकि सच्चाई यह है कि भूख तथा कुपोषण से लाखों की संख्या में लोग मर रहे हैं। संसार की संवेदनहीन सरकारे अपने भूखों की अनदेखी करके परमाणु शस्त्रों की होड़ में लगी हैं।
खरबपतियों ने अपनी अकूत पैसों की ताकत से लोकतंत्र को नेतातंत्र में बदल दिया है। गरीब जनता नेताओं को अपनी गरीबी का कारण समझकर कोसती रहती है और चुनाव के द्वारा सरकारे बदल कर अपना गुस्सा निकलती है। जिस आजादी को लाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों ने अपना सब कुछ बलिदान किया था आज वह लोकतंत्र खतरे में है। नेतातंत्र से निकालने का एकमात्र रास्ता प्रत्येक वोटर को वोटरशिप अधिकार कानून बनाकर ही निकाला जा सकता है। हमें उसी पार्टी को अपना कीमती वोट देना है चाहिए जो वोटरशिप कानून बनाने का वादा अपने घोषणापत्र में करें।
मेरी राष्ट्रीयता वसुधैव कुटुम्बकम् तथा जय जगत की प्रबल समर्थक है। मेरा राष्ट्र प्रेम पूरे विश्व को एक देश की तरह देखता है। इसलिए मेरे लिए लड़ने के लिए कोई देश नहीं है। भारत को यूरोपियन यूनियन से सबक लेकर शीघ्र पहले चरण में दक्षिण एशियाई देशों की एक सरकार बनानी चाहिए। साथ ही इन देशों के बीच युद्धों से बचे पैसे से प्रत्येक वोटर को वोटरशिप के रूप में पन्द्रह हजार रूपये प्रति माह देना चाहिए। दूसरे चरण में दक्षिण-उत्तर एशियाई सरकार बनाकर इस वोटरशिप धनराशि को पच्चीस हजार प्रतिमाह करना चाहिए। अन्तिम तीसरे चरण में विश्व सरकार बनाकर प्रत्येक वोटर को वोटरशिप के रूप में चालीस हजार रूपये देना चाहिए। राजनीतिक आजादी के साथ आर्थिक आजादी लाना ही असली लोकतंत्र है। यहीं हमारी गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रति सच्ची श्रद्धाजंलि होगी।
-प्रदीप कुमार सिंह, लेखक
पता- बी-901, आशीर्वाद, उद्यान-2
एल्डिको, रायबरेली रोड, लखनऊ-226025
मो0 9839423719