भारतीय संस्कृति में विश्व की सभी समस्याओं के समाधान निहित हैं – प्रदीप कुमार सिंह
(1) माधवराव का जन्म 19 फरवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था। वे अपने माता-पिता की एकमात्र जीवित संतान थे। उन्हें अपने माता-पिता से उच्च संस्कार मिले थे। माधव को माता-पिता का भरपूर प्यार तथा घर का धार्मिक वातावरण मिला। बचपन में उनका नाम माधव रखा गया पर परिवार में वे मधु के नाम से ही पुकारे जाते थे। पिता सदाशिव जी शिक्षा विभाग में कुशल तथा अनुभवी अध्यापक थे। सदाशिव जी का मानना है कि शिक्षा द्वारा हमें बालक को बाल्यावस्था से ही ईश्वर से जोड़ना चाहिए। ईश्वर का ज्ञान जब हमारे अन्तःकरण में आ जाता है तब व्यक्ति का अपना कुछ नहीं रह जाता। वह ईश्वरमय बन जाता है।
(2) मधु जब मात्र दो वर्ष के थे तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गयी थी। पिता भाऊजी जो भी उन्हें पढ़ाते थे उसे वे सहज ही कंठस्थ कर लेते थे। बालक मधु में कुशाग्र बुद्धि, ज्ञान की तीव्र ललक, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय बचपन से ही विकसित हो रहा था। माधव बचपन से ही प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले अति मेधावी छात्र रहे हैं। अन्य बच्चों को लेकर आजादी के नारे लगाते हुए और आजादी के गीत गाते हुए अपने गाँव में प्रभात फेरियाँ निकाला करते थे। वह हाकी तो अच्छी खेलते ही थे कभी-कभी टेनिस भी खेल लिया करते थे। इसके अतिरिक्त व्यायाम का भी उन्हें शौक था। वह मलखम्ब के करतब, पकड़, कूद आदि में काफी निपुण थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाँसुरी एवं सितार वादन में भी अच्छी प्रवीणता हासिल कर ली थी।
(3) माधवराव के जीवन में एक नये दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ सन् 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ हुआ। सन् 1926 में उन्होंने बी.एससी. और सन् 1928 में एम.एससी. की परीक्षायें भी प्राणि-शास्त्र विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण कीं। एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में ‘मत्स्य जीवन’ पर शोध कार्य हेतु मद्रास (चेन्नई) के मत्स्यालय से जुड़ गये।
(4) गुरूजी मूल रूप से संन्यासी बनना चाहते थे लेकिन उन्होंने समाज में रहते हुए संन्यासी जीवन जीने का संकल्प लिया। देश की सेवा पूरे मनोयोग से करने के लिए उन्होंने पूरे जीवन अविवाहित रहने का कठोर निर्णय लिया। उनके इस निर्णय को सुनकर उनकी माताजी ने उनसे कहा कि वह अपना वंश को चलाने के लिए विवाह कर लें। यह सुनकर उन्होंने मां से कहां करोड़ों लोगों को गुलामी, गरीबी तथा अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए ही उन्होंने यह निर्णय लिया है। यह सुनकर उनके पिताजी तथा माताजी माधव के निर्णय से सहर्ष सहमत हो गये। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के प्रत्यक्ष शिष्य स्वामी अखंडानंदजी, जो स्वामी विवेकानंद के गुरूभाई थे, उनसे उन्होंने ब्रह्यचर्य की दीक्षा भी ली।
(5) इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निदेशक पद पर सेवा करने का प्रस्ताव मिला। 16 अगस्त सन् 1931 को गुरूजी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निदेशक का पद संभाल लिया। अपने विद्यार्थी जीवन में भी माधव राव अपने मित्रों के अध्ययन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे और अब तो अध्यापन उनकी आजीविका तथा सेवा दोनों का साधन ही बन गया था। उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-विज्ञान था किन्तु विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए. की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको ‘गुरूजी’ के नाम से सम्बोधित करने लगे। इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने गये।
(6) माधव राव यद्यपि विज्ञान के परास्नातक थे, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर अपने छात्रों तथा मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित तथा दर्शन जैसे अन्य विषय भी पढ़ाने को सदैव तत्पर रहते थे। यदि उन्हें पुस्तकालय में पुस्तकें नहीं मिलती थीं, तो वे उन्हें खरीद कर और पढ़कर जिज्ञासी छात्रों एवं मित्रों की सहायता करते रहते थे। उनके वेतन का बहुतांश अपने होनहार छात्र-मित्रों की फीस भर देने अथवा उनकी पुस्तकें खरीद देने में ही व्यय हो जाया करता था।
(7) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर सन् 1925 में विजयादशमी के दिन डा. केशव हेडगेवार द्वारा की गयी थी। गुरूजी का प्रथम सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से काशी विश्वविद्यालय में हुआ। सन् 1928 में नागपुर से काशी विश्वविद्यालय अध्ययनार्थ गये, भैयाजी दाणी तथा नानाजी व्यास जैसे नवयुवकों ने वहां संघ की शाखा प्रारंभ की और सन् 1931 तक उस शाखा की जड़ें अच्छी तरह से जम गयीं। परिणामस्वरूप गुरू जी भी शाखा में आने लगे। संघ के स्वयंसेवक अध्ययन में गुरू जी की मदद लेते थे और संघ स्थान पर उनके भाषणों का आयोजन भी करते थे। गुरूजी के लिए स्वयंसेवक का अर्थ था- स्व का समर्पण, स्व की आहुति, संपूर्ण जीवन का एक आदर्श के लिए समर्पण कर देना। उन्होंने अपने जीवन में विश्राम और विराम को तिलांजलि दे दी थी।
(8) संघ के प्रथम सरसंघचालक डा. हेडगेवार के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और प्रबल आत्म संयम होने की वजह से 1939 में माधव सदाशिव गोलवलकर को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में डा. हेडगेवार बीमार हो गये उनका ज्वर बढ़ता ही गया और अपना अंत समय जानकर उन्होंने उपस्थित कार्यकर्ताओं के सामने ‘गुरूजी’ को अपने पास बुलाया और कहा कि अब आप ही सरसंघचालक के रूप में संघ का कार्य सम्भाले। डा. हेडगेवार 21 जून 1940 को अनंत में विलीन हो गए।
(9) ‘गुरूजी’ ने 1940 से 1973 तक सरसंघचालक का दायित्व बड़ी ही कुशलता से निभाया। सरसंघ चालक के रूप में उनके 33 वर्ष बहुत महत्वपूर्ण रहे। 1942 का भारत छोडो आंदोलन, 1947 में देश का विभाजन तथा खण्डित भारत को मिली राजनीतिक स्वाधीनता, विभाजन के पूर्व और विभाजन के बाद हुआ भीषण रक्तपात, हिन्दू विस्थापितों का विशाल संख्या में हिन्दुस्तान आगमन, कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण। 1948 की 30 जनवरी को गांधीजी की हत्या, उसके बाद संघ-विरोधी विष-वमन, हिंसाचार की आंधी और संघ पर प्रतिबन्ध का लगाया जाना, भारत के संविधान का निर्माण और भारत के प्रशासन का स्वरूप व नीतियों का निर्धारण, भाषावार प्रांत रचना, 1962 में भारत पर चीन का आक्रमण, पंडित नेहरू का निधन, 1965 में भारत-पाक युद्ध, 1971 में भारत व पाकिस्तान के बीच दूसरा युद्ध और बंगलादेश का जन्म, राष्ट्रीय जीवन में वैचारिक मंथन आदि अनेक घटनाओं से व्याप्त यह कालखण्ड रहा। गुरूजी का अध्ययन व चिंतन इतना सर्वश्रेष्ठ था कि वे देश भर के युवाओं के लिए ही प्रेरक पुंज नहीं बने अपितु पूरे राष्ट्र के प्रेरक पुंज व दिशा निर्देशक हो गये थे।
(10) गुरूजी का धर्मग्रन्थों एवं विराट हिन्दू दर्शन पर इतना अधिकार था कि एक बार शंकराचार्य पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया था जिसे उन्होंने राष्ट्र सेवा और संघ के दायित्व की वजह से सहर्ष अस्वीकार कर दिया यदि वो चाहते तो शंकराचार्य बन कर पूजे जा सकते थे किन्तु उन्होंने राष्ट्र और धर्म सेवा दोनों के लिए संघ का ही मार्ग उपयुक्त माना। भारत के ही गुरूजी नहीं वरन् वह जगत गुरू के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व करने की उपयुक्त योग्यता रखते थे उन्होंने विभिन्न धर्मों का अध्ययन किया था। गुरूजी का मानना था कि सनातन या भारतीय संस्कृति में विश्व की सभी वर्तमान समस्याओं के समाधान हंै। वह हिन्दुत्व विचारधारा को सारे विश्व में फैलाना चाहते थे।
(11) ‘गुरूजी’ के आदर्श स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर साल 1893 में अमेरिका के शिकागो की धर्म संसद में हिंदुत्व को लेकर भाषण दिया था। उन्होंने इस भाषण में कहा था कि हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। सांप्रदायिकताएं, कट्ठरताएं और इनकी भयानक वंशज हठधर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हुई है, कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस न होते, तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से, और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।
(12) महान दार्शनिक, प्रखर विद्वान तथा पूर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक “द हिन्दू व्यू आफ लाईफ’’ में हिन्दुत्व के स्वभाव का विवरण दिया है। “अगर हम हिन्दुत्व के व्यावहारिक भाग को देखें तो हम पाते हैं कि यह जीवन पद्धति है न कि कोई विचारधारा। हिन्दुत्व जहाँ वैचारिक अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता देता है वहीं वह व्यावहारिक नियम को सख्ती से अपनाने को कहता है। नास्तिक अथवा आस्तिक सभी हिन्दू हो सकते हैं, बशर्ते वे हिन्दू संस्कृति और जीवन पद्धति को अपनाते हों। हिन्दुत्व धार्मिक एकरूपता पर जोर नहीं देता, वरन् आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाता है। हिन्दुत्व सामाजिक जीवन पर जोर देता है और उन लोगों को साथी बनाता है जो नैतिक मूल्यों से बँधे होते हैं। हिन्दुत्व कोई संप्रदाय नहीं है बल्कि उन लोगों का समुदाय है जो दृढ़ता से सत्य को पाने के लिये प्रयत्नशील हैं।”
(13) ‘गुरूजी’ ने समाज में रहते हुए एक संन्यासी की तरह का कठिन जीवन जिया। ‘गुरूजी’ ने एक तपस्वी के रूप में मानव सेवा को ही माधव सेवा माना। ‘गुरूजी’ ने अपने माधव नाम को चरितार्थ किया। पूरा जीवन मानव सेवा के लिए जीते हुए उन्होंने व्यक्तिगत रूप से कोई भौतिक सम्पत्ति नहीं बनायी। वर्ष 1969 में कैंसर के रोग ने उन्हें जकड़ लिया था। ‘गुरूजी’ की मृत्यु 5 जून 1973 को नागपुर में हो गयी। ‘गुरूजी’ देह रूप में आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन जो विचार रूपी बीज उन्होंने रोपित किये वह व्यापक रूप धारण करके भारत को पुनः ‘जगत गुरू’ बनाने की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं।
(14) ‘गुरूजी’ की आत्मा भारतीय या सनातन संस्कृति में सदैव वास करती थी। चरैवेति-चरैवेति, यही तो मंत्र है अपना। नहीं रूकना, नहीं थकना, सतत चलना सतत चलना। श्री मोदी ने अपनी पुस्तक ‘ज्योतिपुंज’ में ‘गुरूजी’ के संन्यासी तथा तपस्वी जीवन को अपना ज्योति पुंज माना है। भारतीय संस्कृति की सोच को विश्वव्यापी विस्तार देने की प्रक्रिया को आज प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी निरन्तर अथक प्रयास कर रहे हैं। जब से उन्होंने देश की बागडोर अपने हाथों में ली है, तब से सनातन संस्कृति की शिक्षा को आधार मानते हुए इसके प्रसार के लिए वे ‘अग्रदूत’ की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। श्री मोदी न केवल सनातन संस्कृति के ज्ञान को माध्यम बनाकर विश्व समुदाय को जीवन जीने का नवीन मार्ग बता रहे हैं, बल्कि भारत को एक बार फिर विश्वगुरू के रूप में स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस दृष्टिकोण को ‘माय आइडिया आफ इंडिया’ के रूप में कई बार संसार के समक्ष भी रखा है।
(15) श्री मोदी ने 10 मार्च 2018 को राष्ट्रपति भवन में आयोजित इंटरनेशनल सोलर अलायंस सम्मेलन में कहा था कि भारत में वेदों ने हजारों साल पहले से सूर्य को विश्व की आत्मा माना है। भारत में सूर्य को पूरे जीवन का पोषक माना गया है। सौर ऊर्जा का अधिकतम उपयोग करने से जलवायु परिवर्तन की समस्या से मुक्ति मिल सकती है। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने विश्व से ‘योग’ को अपनाने का आह्वान किया। हर वर्ष 21 जून को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित कर दिया। दुनिया सर्व धर्म समभाव यानि सभी धर्मों का सम्मान करने लगे तो संसार में धर्म के नाम पर होने वाले विवाद अवश्य खत्म हो जाएंगे। वसुधैव कुटुम्बकम भारतीय संस्कृति का आदर्श है। ‘अहिंसा परमो धर्मः’ के विचार को अपनाने से युद्ध रहित विश्व का निर्माण होगा, ‘दरिद्र’ को ‘नारायण’ मानने से दूर होगी गरीबी, नारी तू नारायणी’ से सशक्त होंगी महिलाएं, वैष्णव जन तो तेने कहिए जे, पीड़ पराई जाने रे हमारी सनतान संस्कृति का जीवन दर्शन भी है। सत्यमेव जयते भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। मुंडकोपनिषद से लिया गया यह वाक्य स्पष्ट करता है कि सत्य की सदैव ही जीत होती है। संस्कृत की प्रसिद्ध कहावत अतिथि देवो भवः से विश्व बन्धुत्व की भावना व्यापक होगी। पृथ्वी मेरी माता है तथा मैं उसका पुत्र हूँ।
-प्रदीप कुमार सिंह, लेखक
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