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भारत में शिक्षा की समस्यायें और समाधान – डा. जगदीश गांधी

भारत में शिक्षा की समस्यायें और समाधान

शिक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की प्रगति के लिए आवश्यक है। महान दार्शिनिक प्लेटो ने अपनी पुस्तक रिपब्लिक में आदर्श राज्य की परिकल्पना करते हुए कहा है कि ‘‘राज्य सर्वप्रथम एक शिक्षण संस्थान है।’’ अगर राज्य अपने नागरिकों को श्रेष्ठ और रोजगार-परक शिक्षा देने में असमर्थ है, तो उस राज्य का विनाश निश्चित है। इस प्रकार किसी भी राज्य का मुख्य कार्य सर्वश्रेष्ठ नागरिक तैयार करना है और वह केवल श्रेष्ठ और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से ही संभव है।

भारत में शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए सरकार लगातार प्रयासरत् है। इसके लिए सरकार ने एक ओर जहां बोर्ड परीक्षाओं के साथ ही अन्य सभी कक्षाओं में नकल को रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठायें हैं तो वहीं दूसरी ओर प्राइमरी स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति को बढ़ाने के लिए निःशुल्क शिक्षा देने के साथ ही बच्चों को स्कूल बैग, किताबें एवं दोपहर का खाना भी मुफ्त में दे रही है। इसके साथ ही सरकार ने बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओं, उड़ान, प्रगति, एआईसीटीई, आईसीटी, स्वयम, राष्ट्रीय ई-पुस्तकालयों के माध्यम से भी सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करवाने के लिए प्रयास कर रही है। लेकिन मात्र इतने ही उपायों से ही देश की शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाया जाना संभव नहीं हैं।

स्कूली शिक्षा

बात अगर हम स्कूली शिक्षा की करें तो शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 को देश में लागू किये जाने के बाद से स्कूलों में प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों का नामांकन तो बढ़ा है किन्तु विभिन्न सर्वे की रिपोर्टे बताती हैं कि विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों एवं बच्चों की स्कूल में उपस्थिति दर के कम रहने तथा बच्चों के सीखने के स्तर के प्रति शिक्षकों की जवाबदेही की कमी के कारण स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में लगातार गिरावट आई है। इसके साथ ही स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं जैसे बिजली, पीने का पानी, बैठने के लिए कुर्सी-मेज की कमी के कारण और विज्ञान व प्रौद्योगिकी के इस युग में कम्प्यूटर और इण्टरनेट पर काम करने के लिए बिजली की कमी ने भी बच्चों को स्कूलों से दूर रखा है। ऐसे में सरकार को स्कूली शिक्षा में सुधार हेतु कुछ और कदम उठाने चाहिए जो कि इस प्रकार हैं

1- बालक के सम्पूर्ण विकास के लिए उसे सर्वश्रेष्ठ भौतक शिक्षा के साथ ही सामाजिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा देकर उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए।

2- स्कूलों में छात्रों एवं शिक्षकों की उपस्थिति को नियमित करने के लिए निगरानी कमेटी की आवश्यकता है। सरकार को इसके लिए आधुनिक तकनीक का भी सहारा लेना चाहिए।

3- सीखने के स्तर को जांचने के लिए अलग-अलग कक्षाओं के लिए मापदण्ड निर्धारित होना चाहिए। पाठ्यक्रम में रटने की जगह सीखने को महत्व देना चाहिए। और कम से कम तीन वर्षों में एक बार पाठ्यक्रम का पुनरीक्षण अवश्य किया जाना चाहिए।

4- छात्र-छात्राओं में सीखने के स्तर के प्रति शिक्षकों की जवाबदेही भी तय की जानी चाहिए।

5- छात्र-छात्राओं के सीखने के स्तर को समय-समय पर अनिवार्य रूप से जाँचा जाना चाहिए। इसके लिए उनके सीखने के स्तर का मूल्यांकन अर्धवार्षिक एवं वार्षिक आधार पर न होकर मासिक आधार पर किया जाना चाहिए।

6- बच्चों को मन सीखने में लगा रहे इसके लिए शिक्षकों को नये-नये प्रयोगों को करने के लिए प्रेरित करने के साथ ही उनके प्रशिक्षण के लिए समय-समय पर कार्यशालाओं का भी आयोजन किया जाना चाहिए।

7- बच्चों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए उन्हें नैतिक शिक्षा, आर्ट, खेलकूद एवं संगीत आदि की भी शिक्षा देने के साथ ही उन्हें शैक्षणिक गतिविधियों में प्रतिभाग करने हेतु प्रेरित भी करना चाहिए।

8- शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत निजी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले अलाभित समूह एवं दुर्बल वर्ग के छात्रों की फीस प्रतिपूर्ति स्कूलों को न करके इस धनराशि को ‘स्कूल वाउचर’ के माध्यम से सीधे बच्चों के अभिभावकों को दिया जाये। इससे प्रत्येक बच्चे को न केवल शिक्षा प्राप्त करने का समान अवसर मिलेगा बल्कि उन्हें अपने मनपसंद के स्कूल में भी पढ़ने का अवसर मिलेगा।

9- कौशल विकास को ध्यान में रखते हुए कक्षा 9 से ही प्रत्येक बच्चे को उसकी रूचि के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे बच्चों के स्कूल से ड्राप आउट करने की संख्या में भी कमी आयेगी।

10- इसके साथ ही स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं जैसे पर्याप्त मात्रा में शौचालय, पीने का साफ पानी, बैठने के लिए कुर्सी-मेज और कम्प्यूटर एवं इण्टरनेट पर काम करने के लिए बिजली की भी पर्याप्त व्यवस्था की जानी चाहिए।

11- शिक्षकों को राजनैतिक प्रभुत्व व संरक्षण से मुक्त रखते हुए उन्हें केवल शैक्षणिक कार्यों को ही करने देना चाहिए।

12- आज सारे विश्व में कानूनविहीनता बढ़ रही है। इसलिए बच्चों को बचपन से ही कानून पालक तथा न्यायप्रिय बनने की सीख देनी चाहिए।

13- बच्चों की शिक्षा सर्वाधिक महान सेवा है। 21वीं सदी की सबसे बड़ी आवश्यकता बच्चों का विश्वव्यापी दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए।

उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा में विश्व स्तरीय गुणवत्ता लाये बिना देश के युवाओं को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार नहीं किया जा सकता। वास्तव में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता ही किसी राष्ट्र का भविष्य तय करती है। वर्तमान में उच्च शिक्षा व्यवस्था में भारत, चीन और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर आता है। इसके बाद भी दुनिया के शीर्ष 250 संस्थानों की सूची में भारत के किसी विश्वविद्यालय का स्थान न बन पाना काफी चिंता का विषय है। प्राचीन काल में नालन्दा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों द्वारा स्थापित अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को वापस लाये बिना हम भारत के एक बार पुनः ‘विश्व गुरू’ के रूप में स्थापित नहीं कर सकते, जिसके लिए हमें अपनी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाना होगा। अतः सरकार को उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है जो कि इस प्रकार हैं

1- उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाने हेतु सबसे पहले इसके पाठ्यक्रम का पुनरीक्षण किया जाना चाहिए। और यह पाठ्यक्रम अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कैरियर को ध्यान में निर्धारित किया जाना चाहिए।

2- शिक्षक यदि योग्य हो तो वह पेड़ के नीचे भी ज्ञान की लौ प्रज्ज्वलित कर सकता है। इसलिए उच्च शिक्षा में गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए शिक्षा और शोध में रूचि रखने वाले प्रतिभाशाली और योग्य शिक्षकों की ही नियुक्ति की जाये।

3- शोध, अनुसंधान और अन्वेषण अंतर्राष्ट्रीय स्तर का हो। इसके लिए शोध छात्रों के साथ ही शिक्षकों को भी प्रेरित किया जाना चाहिए।

4- काॅलेजांे और विश्वविद्यालयों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की लाइब्रेरी एवं प्रयोगशाला को बनाने के साथ ही उन्हें आधुनिक तकनीक से भी जोड़ना चाहिए। जिसकी सहायता से वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर का ज्ञान हासिल कर सकें।

5- विश्वविद्यालय स्तर पर प्रभावशाली ढंग से पढ़ाने के लिए शिक्षकों को शोध कार्य को गहराई के साथ करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

6- कम से कम तीन वर्षों में एक बार पाठ्यक्रम का पुनरीक्षण हो व इसे दोबारा व्यवस्थित किया जाये।

7- इस बात की निरन्तर कोशिश होनी चाहिए कि प्रतिभाशाली व योग्य अध्यापकों को रोककर रखा जाये और इन शिक्षकों को अच्छे कार्य के लिए बेहतर वातावरण, सुविधायें व पुरस्कार दिये जायें।

8- शिक्षकों की भूमिका केवल विषयों को पढ़ाने तक ही सीमित नहीं हैं। अतः उनको छात्रों के साथ अपने जीवन के अनुभव को भी बांटना चाहिए।

9ण् साल में केवल एक या दो बार परीक्षा कराने की बजाय छात्रों के ज्ञान के मूल्यांकन मासिक आधार पर किया जाये।

10- छात्रों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए उन्हें न केवल सर्वश्रेष्ठ शिक्षा प्रदान की जाये बल्कि उनको व्यवहारिक अनुभवों के आधार पर भी ज्ञान प्रदान किया जाये। इसके लिए उन्हें विभिन्न सामाजिक, खेलकूद एवं शैक्षणिक गतिविधियों में प्रतिभाग करने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए।

11- उप-कुलपतियों की नियुक्तियों को सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त किया जाये और शिक्षण संस्थानों को पूर्ण स्वायत्ता दे दी जाये।

12- शिक्षा में सरकारी व्यय को बढ़ाया जाये और धन के अभाव में उन उद्योगपतियों से सहायता लेनी चाहिए जो कि शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए शोध एवं विकास कार्यों के लिए धन देते हैं।

13- आर्थिक रूप से कमजोर मेधावी बच्चों की पढ़ाई में कोई व्यवधान न हो इसके लिए उन्हें छात्रवृत्ति दी जानी चाहिए।

 

डा. जगदीश गांधी

डा. जगदीश गांधी

– डा. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं
संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

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