आ मिल यारा सार लै मेरी – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
आ मिल यारा सार लै मेरी,
मेरी जान दुखां ने घेरी| टेक|
अन्दर ख़्वाब विछोड़ा होया,
ख़बर न पैंदी तेरी,
सुज्जी बन विच लुट्टी साइयां,
चोर-शंग ने घेरी|
मुल्लां काज़ी राह बतावण,
दीन धरम दे फेरे,
एह तां ठग ने जग दे झांवर
लावण जाल चुफेरे|
करम शरां दे धरम बतावण,
संगल पावण पैरी,
ज़ात मज़ब एह इश्क़ न पुछदा,
इश्क़ शरा दा वैरी|
नदियों पार ए मुलक सजण दा,
लोभ लहर ने घेरी,
सतिगुर बेड़ी फड़ी खलोते
तैं क्यों लाई ए देरी|
बुल्ल्हे शाह शौह तैनूं मिलसी,
दिल नूं देह दलेरी,
प्रीतम पास ते टोलणा किस नूं,
भुलिओं सिखर दुपहरी|
आ जाओ मित्रा, मेरी ख़बर लो
इस काफ़ी में कर्मकांडी पुरोहितों और मुल्लाओं पर व्यंग्य कसा गया है| सन्त कवि कहते हैं कि आओ मित्र, हमें मिलो, हमारा दुख-सुख समझो| साधना की दिशा में बढ़ने वाले की जान दुखों से घिरी हुई है|
स्वप्न में हम एक-दूसरे से बिछुड़ गए (आख़िर यह जगत सपना-सा ही तो है)| अब पता नहीं चलता कि तुम कहां हो| मेरे स्वामी, मैं वन में अकली हूं और लुट रही हूं| तरह-तरह के चोरों-डाकुओं ने मुझे घेर रखा है|
मुल्ला और काज़ी तरह-तरह के कर्मकांडी राह दिखाते हैं, जिससे दीन (इस्लाम) और धर्म (हिन्दू) सम्बन्धी भ्रम पैदा होते हैं| ये तो चिड़ीमारों की तरह पुरे ठग हैं और संसार में जीवों को फंसाने के जाल बिछाते हैं|
ये लोग बाहरी कर्मकांड और शरीअत को धर्म (आन्तरिक अध्यात्म) बताते हैं, और इस प्रकार से पांवों में ज़ंजीरें डाल देते हैं| खुदा के इश्क़ के दरबार में कोई धर्म (सम्प्रदाय) के विषय में प्रश्न नहीं पूछता| सच कहूं तो सच्चे इश्क़ का शरीअत से बैर है|
प्रिय का देश नदी (भवजल) के पार है| नदी में लोभ की तरह-तरह की लहरें उठ रही हैं| सतिगुर (मुर्शिद) नाव लेकर खड़े हैं| उसी के सहारे पार हो सकते हो| तुम नाव में सवार होने में देर क्यों कर रहे हो?
बुल्लेशाह कहते हैं कि (नाव में चढ़ जाओ तो) तुम्हें प्रिय (अवश्य) मिलेंगे| दिल में भरोसा रखो| प्रिय तो तुम्हारे पास ही है, तुम किसे ढूंढ़ रहे हो? भरी दोपहर के समय उसे ढूंढ़ने की भुल क्यों कर रहे हो?