राजा जनक को ज्ञान-प्राप्ति
एक बार राजा जनक ने चाहा कि मैं परम-पद हासिल करूँ| यह सोचकर उसने एक हज़ार गायें मँगवायी और हरएक गाय के सींग पर बीस-बीस मोहरें बाँध दीं और हुक्म दिया कि जो व्यक्ति शास्त्रार्थ में जीत जाये, वही गायें ले जाये| कई महीने तक वाद-विवाद होता रहा| आख़िर याज्ञवल्क्य सब ऋषियों से अव्वल निकला और एक हज़ार गायें मोहरों समेत ले गया|
राजा ने कहा कि जो मुझे अन्दर ले जाकर ज्ञान करवायेगा उसे मोहरों समेत एक हज़ार गायें और दूँगा| याज्ञवल्क्य वाचक ज्ञानी था| उसने तर्क भरी बातों से सारा सिद्धान्त समझा दिया, मगर आन्तरिक ज्ञान यानी अनुभव न करवा सका|
अन्त में राजा ने एक सिंहासन बनवाया| उसने मुल्क के सारे महात्मा बुलाये और कहा कि जो भी मुझे जान दे सके वह इस सिंहासन पर बैठकर दे, पर शर्त यह है कि मुझे ज्ञान उतने समय में चाहिए जितना समय घोड़े पर सवार होने में लगता है| सभी महात्माओं की यही राय थी कि ज्ञान कोई घोलकर पिलानेवाली चीज़ नहीं है जो पिला दें| पहले कुछ लिखायें – पढ़ायें, फिर आगे बताएँ| इतने में अष्टावक्र जी आ गये| वे शरीर के टेढ़े और कुबड़े थे| उन्होंने सोचा कि अगर राजा को आन्तरिक ज्ञान (अनुभव) न हुआ तो महात्मा के भेष को लाज आयेगी| यह सोचकर वह चुपचाप सिंहासन पर जा बैठे|
ऋषियों ने समझा कि कोई पागल सिंहासन पर आ बैठा है, सब हँस पड़े| अष्टावक्र जी ने कहा, “मैंने सोचा था कि यह महात्माओं की सभा है पर लगता है कि आप आत्मा को नहीं, मोचियों की तरह शरीर को देखते हो|”
ऋषि ने पूछा कि राजा तू ज्ञान लेना चाहता है? राजा ने जवाब दिया कि जी हाँ| अष्टावक्र ने कहा कि ज्ञान की कुछ दक्षिणा भी होती है, शुक्राना भी होता है, देगा? राजा ने अर्ज़ की, “जो कुछ मेरे पास है, मैं आपको देने को तैयार हूँ|” अष्टावक्र ने कहा, “मैं भी वही माँगूँगा जो तेरी ताक़त में है| अच्छा, मैं तीन चीज़ें माँगता हूँ – तन, मन और धन|” राजा ने थोड़ी देर सोचकर कहा कि मैंने दिया| अष्टावक्र ने कहा, “फिर सोच लो|” राजा ने कहा, “जी, मैंने सोच लिया|” अष्टावक्र ने कहा कि करो संकल्प| राजा ने संकल्प कर लिया| उन दिनों में रिवाज था कि पानी का चुल्लू भरा और संकल्प हो गया|
अब अष्टावक्र ने राजा से कहा, “देख राजा, तू मुझे तन, मन और धन दे चुका है| इसका मालिक अब मैं हूँ, तू नहीं| मैं हुक्म देता हूँ कि तू सबके जूतों में जाकर बैठ जा|” दरबार में एकदम सन्नाटा छा गया| सब सोचने लगे कि अपनी प्रजा और अपना राज्य; सबके सामने जूतों में जाकर राजा कैसे बैठेगा? यह तो कोई नीच ही कर सकता है| मगर राजा समझदार था, ज़रा भी न झिझका| चुपचाप जूतों में जाकर बैठ गया| अष्टावक्र ने ऐसा इसलिए किया कि राजा की लोक-लाज छूट जाये| लोक-लाज बड़ी भारी रुकावट है| बड़े-बड़े लोग इसके सामने हार जाते हैं| फिर अष्टावक्र ने कहा कि यह धन मेरा है| मेरे धन में मन न लगाना| राजा का ध्यान औरतों की ओर जाता है फिर वापस आ जाता है कि यह ऋषि की हैं| मुल्क की ओर जाता है, फिर वापस आ जाता है कि यह भी ऋषि का ही है| मन की आदत है, यह कभी ख़ाली नहीं बैठता, कुछ न कुछ बराबर सोचता रहता है| सो राजा का ख़याल उन सबकी तरफ़ जाता है और वापस आ जाता है, जाता है फिर वापस आ जाता है| आख़िर राजा आँखें बन्द करके बैठ गया कि न मैं बाहर देखूँ और न ख़याल बाहर जाये| यही ऋषि चाहता था| उसका ख़याल एकाग्र हुआ देखकर ऋषि ने पूछा, “तू कहाँ है?” राजा जनक बोला, “मैं अन्दर हूँ|” ऋषि ने कहा, “तू मन भी मुझे दे चूका है| ख़बरदार! जो उससे कोई ख़याल उठाया!” राजा समझदार था, समझ गया कि मेरा मन पर कोई दावा या अधिकार नहीं है| समझने की देर थी कि मन रुक गया|
जब ख़याल टिक गया, अष्टावक्र ने अपनी तवज्जुह दे दी! रूह अन्दर चली गयी, रूहानी मंज़िलों की सैर करती-करती शब्द की लज्ज़त लेने लगी| अष्टावक्र ने राजा को कई बार बुलाया, पर अब बोले कौन? ऋषि ने जितनी देर मुनासिब समझा, राजा को अन्दर लज्ज़त लेने दी| आख़िर में उसका ख़याल नीचे लाये| जब राजा ने आँखें खोलीं तो अष्टावक्र ने पूछा, “क्या ज्ञान हो गया?” राजा ने उत्तर दिया, “जी, हो गया और यह इतना श्रेष्ठ और उत्तम था कि मैंने इस बारे में कभी सपने में भी नहीं सोचा था|” ऋषि ने फिर पूछा, “कोई शक तो नहीं रहा!” जनक ने कहा, “जी, कोई शक नहीं|”
ऋषि ने कहा, “मैं यह तन,मन और धन तुझे प्रसाद के तौर पर देता हूँ| इन्हें अपना न समझना| राज्य भी कर और भजन भी कर| संसार और इसकी धन-दौलत से मन निकाल दे| अब तुम्हें प्रभु के नाम का अनमोल ख़ज़ाना मिल गया है| अब इस संसार की वस्तुओं से मोह नहीं रखोगे बल्कि प्रभु से उसके प्रेम और अनुभव की याचना करोगे|”
अपने लिए पृथ्वी पर ख़ज़ाना जमा मत करो जहाँ कीड़े और ज़ंग
उसे खराब कर देते हैं, और जहाँ चोर सेंध लगाते और चोरी कर
लेते हैं| बल्कि अपने लिए परम-धाम में ख़ज़ाना जमा करो जहाँ
न तो कीड़े और ज़ंग उसे ख़राब करते हैं, और जहाँ चोर न सेंध
लगाते हैं और न ही चोरी करते हैं| क्योंकि जहाँ तुम्हारा ख़ज़ाना
होगा, वहीं तुम्हारा मन भी होगा| (सेंट मैथ्यू)