लगाव
एक सूफी नवाब थे| एक रोज एक भिखारी आया| इस फकीर ने देखा कि वह सूफी नवाब एक भव्य सुंदर तम्बू में मखमल की गद्दी पर बैठे हैं|
एक सूफी नवाब थे| एक रोज एक भिखारी आया| इस फकीर ने देखा कि वह सूफी नवाब एक भव्य सुंदर तम्बू में मखमल की गद्दी पर बैठे हैं|
आचार्य मृदुल कांत जी महाराज जैसे कुछ पुरुष वैदिक संस्कृति की दिव्य परंपरा में हैं। अपने किशोर होने के बाद से, वह परंपरागत मूल्यों और वैदिक धर्म के माध्यम से मानव सभ्यता के लिए भगवान के प्यार की अनन्त प्रेम और खुशी का प्रसार कर रहे हैं।
प्राचीन समय की बात है| एक साधु बहुत बूढ़े हो गए थे| उनके जीवन के आखिरी क्षण निकट आ पहुँचे| आखिरी क्षणों में उन्होंने अपने शिष्यों को अपने पास बुलाया| जब उनके पास सब आये, तब उन्होंने अपना पोपला मुहँ पूरा खोल दिया और शिष्यों से बोले- “देखो, मेरे मुँह में कितने दाँत बच गए हैं?”
छान्दोग्य उपनिषद की कहानी है| एक बार जबाला नामक महिला के पुत्र सत्यकाम ने माँ से पूछा- “माँ, मेरी इच्छा ब्रह्मचर्य धारण करने की है| गुरु के पास जाऊँगा तो वह मुझसे पूछेंगे कि तुम्हारा क्या गोत्र है?
झारखंड में रामगढ़ के रजप्पा टाउनशिप में पिछले 30 साल से झाडू लगाने वाली सुमित्रा देवी का नौकरी का आखिरी दिन था। विदाई समारोह में शामिल होने के लिए उसके तीन अफसर बेटे शामिल हुए। उसके तीन बेटों में सीवान (बिहार) के डीएम महेंद्र कुमार, रेलवे के चीफ इंजीनियर वीरेन्द्र कुमार व रेलवे के चिकित्सक धीरेन्द्र कुमार हैं। बेटों ने मां के संघर्ष की कहानी से सबको अवगत कराया। उन्होंने कहा कि उन्हें बहुत खुशी है कि जिस नौकरी के दम पर उनकी मां ने उन्हें पढ़ाया-लिखााया, आज उसके विदाई समारोह में वे उनके साथ हैं। सुमित्रा देवी ने कहा कि यह नौकरी इसलिए नही छोड़ी कि इसी की कमाई से उनके बेटे पढ़-लिखकर आगे बढ़ सके और आज उन्हें गर्व का एहसास करा रहे हैं। सुमित्रा के जज्बे को लाखों सलाम जो पूरी जिंदगी झाडू लगाती रही, लेकिन उसने अपने तीनों बेटों को साहब बना दिया। इसे कहते है यदि कोई मनुष्य अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर अच्छा इंसान बनाने का संकल्प कर ले तो फिर कुछ भी असंभव नहीं रहता। कुदरत चारों ओर से हमारा हौसला बढ़ाती है। सफलता कोई मंजिल नहीं वरन् सफलता ही रास्ता है। संग्राम जिन्दगी है लड़ना इसे पड़ेगा, जो लड़ नहीं सकेगा आगे नहीं बढ़ेगा।
श्री महाराज जी ने जाति, पंथ, रंग या जाति का कोई भेद नहीं किया। उनके असीम प्रेम और करुणा के साथ, उसने सभी को अपनी दिव्य गले की शुद्धता में इकट्ठा किया।
इस नरम-बोलनेवाले, विनम्र और अंतर्मुखी युवक ने सांसारिक जीवन को अर्थहीन और बोझिल पाया। उन्होंने यह नहीं सोचा था कि इस गानिक को पूरा करना उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ होगा, जो कि समय में किसी चीज से परे बदलना होगा जो वह कल्पना कर सकता था।
ओशो प्रिया जी का जन्म 8 मई, 1958 को हुआ था। उसके माता-पिता के माध्यम से आध्यात्मिकता के बीज बोया गया था। उनके पिता ने शुरू में पारंपरिक संन्यास का पालन किया, वह स्वामी अखंडानंद का शिष्य था।