अध्याय 255
1 [जाजलि]
यथा परवर्तितॊ धर्मस तुलां धारयता तवया
सवर्गद्वारं च वृत्तिं च भूतानाम अवरॊत्स्यते
1 [जाजलि]
यथा परवर्तितॊ धर्मस तुलां धारयता तवया
सवर्गद्वारं च वृत्तिं च भूतानाम अवरॊत्स्यते
गठिया एक विचित्र और कष्टप्रद रोग है| यह अधिकतर प्रौढ़ावस्था और बुढ़ापे में ही होती है| परन्तु कभी-कभी छोटी उम्र में भी यह बहुत से मनुष्यों को हो जाती है|
“Sanjaya said, ‘Seeding his uncle thus addressed in harsh and insultingwords by the Suta’s son, Aswatthaman, uplifting his scimitar, furiouslyrushed towards the latter. Filled with fury, Drona’s son rushed towardsKarna, in the very sight of the Kuru king, like a lion at an infuriatedelephant.
“Vaisampayana said, ‘Hearing these words (of the leaders of the Kuruarmy), Kunti’s son Yudhishthira, summoning all his brothers, said untothem these words in private.’
“Vaisampayana said, ‘Yudhishthira the son of Kunti, thus addressed bySaunaka, approached his priest and in the midst of his brothers said,’The Brahmanas versed in the Vedas are following me who am departing forthe forest.
प्राचीन समय की बात है| एक साधु बहुत बूढ़े हो गए थे| उनके जीवन के आखिरी क्षण निकट आ पहुँचे| आखिरी क्षणों में उन्होंने अपने शिष्यों को अपने पास बुलाया| जब उनके पास सब आये, तब उन्होंने अपना पोपला मुहँ पूरा खोल दिया और शिष्यों से बोले- “देखो, मेरे मुँह में कितने दाँत बच गए हैं?”
एक बार भगवान शंकर पार्वती जी एवं नारदजी के साथ भ्रमण हेतु चल दिए । वे चलते चलते चैत्र शुक्ल तृतीया को एक गाँव में पहुचे। उनका आना सुनकर ग्राम की निर्धन स्त्रियाँ उनके स्वागत के लिए थालियो में हल्दी अक्षत लेकर पूजन हतु तुरतं पहुँच गई । पार्वती जी ने उनके पूजा भाव को समझकर सारा सुहाग रस उन पर छिडक दिया। वे अटल सुहाग प्राप्त कर लौटी।