अध्याय 129
1 [ल]
अस्मिन किल सवयं राजन्न इष्टवान वै परजापतिः
सत्रम इष्टी कृतं नाम पुरा वर्षसहस्रिकम
1 [भ]
तस्यां निशायां वयुष्टायां गते तस्मिन दविजॊत्तमे
निष्क्रम्य गौतमॊ ऽगच्छत समुद्रं परति भारत
पानी भर-भर गइयां सब्भे आपो अपनी वार| टेक|
इक भरन आइयां, इक भर चल्लियां,
इक खलियां ने बाहं पसार|
एक साधु था| वह नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहता था, सांसारिक बंधनों को तिलांजलि देकर वह एकाग्र भाव से ईश्वराधना में डूबा रहता था|
Vaisampayana said, “Once more the great sage Krishna-Dwaipayana saidthese words unto Ajatasatru, the son of Kunti
Sanjaya said, “When the troops, O bull of Bharata’s race, were withdrawnon the first day, and when Duryodhana was filled with delight upon(beholding) Bhishma excited with wrath in battle, king Yudhisthira thejust, speedily repaired unto Janardana, accompanied by all his brothersand all the kings (on his side).
1 [य]
कां नु वाचं संजय मे शृणॊषि; युद्धैषिणीं येन युद्धाद बिभेषि
अयुद्धं वै तात युद्धाद गरीयः; कस तल लब्ध्वा जातु युध्येत सूत
“Markandeya said, ‘At length, O king, after a long time had passed away,the hour that had been appointed for the death of Satyavan arrived. Andas the words that had been spoken by Narada were ever present in the mindof Savitri, she had counted the days as they passed.
एक दिन वन में गुजरते हुए नारदजी ने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है कि उसके शरीर के चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है। नारदजी को देखकर उसने उन्हें प्रणाम किया और पूछा -प्रभु! आप कहां जा रहे हैं? नारदजी ने उत्तर दिया- मैं बैकुंठ जा रहा हूं।