अध्याय 58
1 [वै]
अथ दुर्यॊधनः कर्णॊ दुःशासनविविंशती
दरॊणश च सह पुत्रेण कृपश चातिरथॊ रणे
यह जटायुक्त फल होता है| इसका छिलका बहुत सख्त होता है| इसको तोड़ने के बाद अंदर से गिरी निकलती है, इसमें पानी भी होता है| स्वाद में यह मीठा होता है| इसमें विटामिन-ए न्यूनाधिक मात्रा में होता है|
Vaishampayana said, “Even thus, O Janamejaya, did that terrible battletake place. King Dhritarashtra, in great sorrow, said these words withreference to it:
“Bhishma said, ‘Drawing the bow-string, destruction of foes, agriculture,trade, tending cattle, and serving others for wealth, these are improperfor a Brahmana.
“Yudhishthira said, ‘Thou hast told me, O regenerate one, what the end isof unrighteousness or sin. I desire now to hear, O foremost of speakers,of what the end is of Righteousness.
1 [या]
तत्त्वानां सर्ग संख्या च कालसंख्या तथैव च
मया परॊक्तानुपूर्व्येण संहारम अपि मे शृणु
एक गाँव में चार पक्के मित्र रहते थे| उनमें से एक दर्जी था, एक सुनार, एक ब्राह्मण और एक बढ़ई था| "विकट समस्या" सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio Your browser does not support the audio element. एक बार चारों ने निर्णय लिया कि
“Vaisampayana said, ‘When Krishna had said this, all the monarchs therewere filled with joy. And the shout sent forth by those delighted kingswas tremendous.