अध्याय 184
1 [मार्क]
अत्रैव च सरस्वत्या गीतं परपुरंजय
पृष्टया मुनिना वीर शृणु तर्क्षेण धीमता
यह कथा उस समय की है, जब वर्धमान नगर में राजा वीरभुज का शासन था| राजा वीरभुज को संसार के सभी भौतिक सुख उपलब्ध थे, किंतु संतान न होने का दुख उसे विदग्ध किए रहता था| संतान की लालसा में उसने एक-एक करके सौ विवाह किए थे, किंतु उसकी कोई भी रानी अपनी कोख से राज्य के उत्तराधिकारी को जन्म न दे सकी|
सेन नामक एक ठग ने अपने मित्र दीना के साथ मिलकर लोगों को मिलकर लोगों को ठगने की योजना बनायी| वह नकली महात्मा बन गया| दीना को उसके बारे में झूठा प्रचार करना था|
1 [य]
किं पार्थिवेन कर्तव्यं किं च कृत्वा सुखी भवेत
तन ममाचक्ष्व तत्त्वेन सर्वं धर्मभृतां वर
1 [य]
अधर्मस्य गतिर बरह्मन कथिता मे तवयानघ
धर्मस्य तु गतिं शरॊतुम इच्छामि वदतां वर
कृत्वा कर्माणि पापानि कथं यान्ति शुभां गतिम
“Vyasa said, ‘Those that are conversant with the scriptures behold, withthe aid of acts laid down in the scriptures, the Soul which is clothed ina subtile body and is exceedingly subtile and which is dissociated fromthe gross body in which it resides.