अध्याय 57
1 [स]
कुन्तीपुत्रस तु तं मन्त्रं समरन्न एव धनंजयः
परतिज्ञाम आत्मनॊ रक्षन मुमॊहाचिन्त्य विक्रमः
1 [स]
कुन्तीपुत्रस तु तं मन्त्रं समरन्न एव धनंजयः
परतिज्ञाम आत्मनॊ रक्षन मुमॊहाचिन्त्य विक्रमः
अकबर के दरबार में कलाकारों, विद्वानों तथा अपने-अपने क्षेत्र में माहिर लोगों की कद्र की जाती थी| जब भी ऐसा कोई व्यक्ति दरबार में आकर अपनी कला का प्रदर्शन करता, राजा उसे भारी इनाम देकर खुश कर देते थे|
अजामल उधरिआ कहि ऐक बार ||
सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिये .
जाहि विधि राखे, राम ताहि विधि रहिये ..
“Bhishma said, ‘Having spoken in this way (unto all things), theregenerate Rishi of austere penances, viz., Suka, stayed on his successcasting off the four kinds of faults.
1 [वै]
अजिनानि विधुन्वन्तः करकांश च दविजर्षभाः
ऊचुस तं भीर न कर्तव्या वयं यॊत्स्यामहे परान