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साईं बाबा अंतर्यामी थे और वे अपने भक्तों के मन की बात पहले ही जान जाया करते थे| साईं बाबा के अनन्य भक्त नाना साहब चाँदोरकर नंदूरवार के मामलातदार थे|

किसी के बारे में कोई भला-बुरा कहे या बुराई करे, यह बाबा को बिल्कुल पसंद नहीं था| बाबा सब जान जाते और अवसर पाकर बातों ही बातों में उसे उसके बारे में समझा भी देते| ऐसे ही एक घटना का यहां वर्णन किया जा रहा है -एक वार पंढरपुर के एक वकील बाबा के दर्शन करने के लिए मस्जिद आये थे| उन्होंने बाबा की चरणवंदना की और कुछ दक्षिणा अर्पण कर वहीं एक कोने में  बैठे वार्तालाप सुनने लगे|

एक समय की बात है जब दोपहर की आरती के बाद भक्त अपने-अपने घरों की ओर लौट रहे थे तो तब बाबा ने उन्हें अपनी सुमधुर वाणी में अमृतोपदेश देते हुए कहा – “तुम कहीं भी रहो, कुछ भी करो, लेकिन इतना याद रखो कि तुम जो कुछ भी करते हो, तुम्हारी हरेक करतूत की खबर सदैव मुझे रहती है| मैं ही सब जीवों का स्वामी हूं और मैं सबके हृदयों में वास करता हूं| संसार के जितने भी जड़-चेतन जीव हैं, वे मेरे ही उदर में समाए हुए हैं|

शिरडी में सबसे पहले साईं बाबा ने वाइजाबाई के घर से ही भिक्षा ली थी| वाइजाबाई एक धर्मपरायण स्त्री थी| उनकी एक ही संतान तात्या था, जो पहले ही दिन से साईं बाबा का परमभक्त बन गया था|

हरदा गांव निवासी दत्तोपंत चौदह साल से पेटदर्द की पीड़ा से परेशान थे| उन्होंने हर तरह का इलाज करवाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ|

साईं बाबा अपने जीवन के पूर्वाध्र्द में शिरडीवासियों की चिकित्सा भी किया करते थे| उनके द्वारा दी जाने वाली औषधि से रोगी शीघ्र ही रोगमुक्त हो जाया करते थे| इसी वजह से साईं बाबा एक कुशल चिकित्सक के रूप में भी प्रसिद्ध हो गए| बाबा की चिकित्सा करने की पद्धति भी अद्भुत थी|

साईं बाबा और मोहिद्दीन की कुश्ती के कुछ वर्षों के बाद जौहर अली नाम का एक मुस्लिम फकीर रहाता में अपने शिष्यों के साथ रहने आया| वह हनुमान मंदिर के पास एक मकान में डेरा जमाकर रहने लगा|

एक बार दासगणु जी महाराज ने ईशोपनिषद् पर ‘ईश्वास्य-भावार्थ-बोधिनी टीका’ लिखनी शुरू की| इस ग्रंथ पर टीका लिखना वास्तव में बहुत ही कठिन कार्य है| दासगणु ने ओवी छंदों में इसकी टीका तो की, पर सारतत्व उनकी समझ में नहीं आया| टीका लिखने के बाद भी उन्हें आत्मसंतुष्टि नहीं हुई| अपनी शंका के समाधान के लिए उन्होंने अनेक विद्वानों से परामर्श किया, परन्तु उसका कोई समाधान नहीं हो सका|

एक बार शिरडी में हैजे का प्रकोप हो गया| जिससे शिरडीवासियों में भय फैल गया| अन्य गांवों से उनका सम्पर्क समाप्त-सा हो गया| तब गांव के पंचों ने यह आदेश जारी किया कि गांव में कोई भी आदमी बकरे की बलि न देगा और दूसरा यह कि गांव में लकड़ी की एक भी गाड़ी वगैरा बाहर से न आये| जो कोई भी इन आदेशों का पालन नहीं करेगा, उसे जुर्माना भरना पड़ेगा| सारे गांव में यह घोषणा कर दी गई|