अंहकार
प्राचीन समय की बात है| महाविद्वान कवि कालिदास को अपनी विद्वता पर अहंकार हो गया| उन्होंने बहुत से अवसरों पर उसका प्रदर्शन भी किया|
प्राचीन समय की बात है| महाविद्वान कवि कालिदास को अपनी विद्वता पर अहंकार हो गया| उन्होंने बहुत से अवसरों पर उसका प्रदर्शन भी किया|
पुलत्स्य ऋषि के उत्कृष्ट कुल में जन्म लेने के बावजूद रावण का पराभव और अधोगति के अनेक कारणों में मुख्य रूप से दैविक एवं मायिक कारणों का उल्लेख किया जाता है। दैविक एवं प्रारब्ध से संबंधित कारणों में उन शापों की चर्चा की जाती है जिनकी वजह से उन्हें राक्षस योनि में पैदा होना पड़ा। मायिक स्तर पर शक्तियों के दुरुपयोग ने उनके तपस्या से अर्जित ज्ञान को नष्ट कर दिया था।
एक व्यापारी के पास एक गधा था| उसे अच्छा भोजन मिलाता था| वह मोटा और शक्तिशाली था| व्यापारी के पापस एक कुत्ता भी था| वह कुत्ते से खेलता था| कुत्ते उसकी गोद में बैठ जाता था, और पांव चाटता था| बदले में उसे रोटी, हड्डी और व्यापारी की प्यार भरी थपकी मिलाती थी|
संस्कृत भाषा का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है-: ‘मृच्छ कटिकम्-| इस ग्रंथ में चारुदत ब्राहमण के उत्तम शील की चर्चा की है|
अगस्त्य मुनि ने आगे कहा, “एक दिन हिमालय प्रदेश में भ्रमण करते हुये रावण ने अमित तेजस्वी ब्रह्मर्षि कुशध्वज की कन्या वेदवती को तपस्या करते देखा। उस देखकर वह मुग्ध हो गया और उसके पास आकर उसका परिचय तथा अविवाहित रहने का कारण पूछा।
कछुए का एक राजा था| उसे राजा बृहस्पति के विवाह का निमंत्रण मिला| वह आलसी था, फलतः घर पर ही रह गया| विवाह के उत्सव में सम्मिलित नहीं हुआ| बृहस्पति नाराज हो गए| उन्होंने कछुए की पीठ पर अपना घर ढोने का शाप दे दिया|
एक बार की घटना है| फ्रांस में पहले राजतंत्र शासन था| एक समय वहाँ पर हेनरी चतुर्थ का शासन था| एक बार वह अपने राज्य के अधिकारियों के साथ किसी कार्यक्रम में जा रहे थे| रास्ते में एक भिक्षुक खड़ा था|
अगस्त्य मुनि ने कहना जारी रखा, “पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कुबेला में आई हो।
बहुत दिन पहले एक झील के किनारे एक बहुत बड़ा नगर था| नगर जितना बड़ा था उतना ही सुन्दर भी था| वहां अनेक मंदिर और शानदार इमारते थी|
जब श्रीराम अयोध्या में राज्य करने लगे तब एक दिन समस्त ऋषि-मुनि श्रीरघुनाथजी का अभिनन्दन करने के लिये अयोध्यापुरी में आये। श्रीरामचन्द्रजी ने उन सबका यथोचित सत्कार किया।