HomePosts Tagged "शिक्षाप्रद कथाएँ" (Page 51)

महाभारत का भयंकर युद्ध चल रहा था। लड़ते-लड़के अर्जुन रणक्षेत्र से दूर चले गए थे। अर्जुन की अनुपस्थिति में पाण्डवों को पराजित करने के लिए द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की। अर्जुन-पुत्र अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदने के लिए उसमें घुस गया।

एक गरीब ब्राह्मण था| उसको अपनी कन्या का विवाह करना था| उसने विचार किया कि कथा करने से कुछ पैसा आ जायगा तो काम चल जायगा| ऐसा विचार करके उसने भगवान् राम के एक मन्दिर में बैठकर कथा आरम्भ कर दी| उसका भाव यह था कि कोई श्रोता आये, चाहे न आये, पर भगवान तो मेरी कथा सुनेंगे ही!

किसी वन में चण्डरव नामक एक सियार रहता था| एक दिन वह भूख से व्याकुल भटकता हुआ लोभ के कारण समीप के नगर में पहुंच गया| उसको देखते ही नगरवासी कुत्ते उसके पीछे पड़ गए|

राजा उत्तानपाद ब्रह्माजी के मानस पुत्र स्वयंभू मनु के पुत्र थे। उनकी सनीति एवं सुरुचि नामक दो पत्नियाँ थीं। उन्हें सुनीति से ध्रुव एवं सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र प्राप्त हुए। वे दोनों राजकुमारों से समान प्रेम करते थे।

एक बड़ी झील के किनारे एक बाज़ रहता था| कुछ समय बाद एक मादा बाज़ भी दूसरे पेड़ पर आकर रहने लगी| बाज़ ने मादा बाज़ से शादी का निवेदन किया तो उसने कहा कि पहले कुछ मित्र तो बनाओ| क्योंकि जब कभी मुसीबत आती है तो मित्रों का बहुत सहारा होता है|

एक ‘चक्ववेण’ नाम के राजा थे| वे बड़े धर्मात्मा थे| राजा और रानी दोनों खेती करते थे और खेती से जितना उपार्जन हो जाय, उससे अपना निर्वाह करते थे| राज्य के धन को वे अपने काम में नहीं लेते थे|

किसी कुएं में गंगादत्त नाम का मेंढ़क रहता था| एक बार वह अपने दामादों से बड़ा परेशान था| यहां तक कि एक दिन इसके कारण उसे पने घर से बेघर होना पड़ा पर घर छोड़ने के पश्चात् उसने सोचा कि अब मैं इससे कैसे बदला लूं|

सती के विरह में शंकरजी की दयनीय दशा हो गई। वे हर पल सती का ही ध्यान करते रहते और उन्हीं की चर्चा में व्यस्त रहते। उधर सती ने भी शरीर का त्याग करते समय संकल्प किया था कि मैं राजा हिमालय के यहाँ जन्म लेकर शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूँ।