HomePosts Tagged "शिक्षाप्रद कथाएँ" (Page 116)

मनुष्य को ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि मेरा पाप तो कम था पर दंड अधिक भोगना पड़ा अथवा मैंने पाप तो किया नहीं पर दंड मुझे मिल गया! कारण कि यह सर्वज्ञ, सर्वसुह्रद, सर्वप्रथम भगवान् का विधान है कि पाप से अधिक दंड कोई नही भोगता और जो दंड मिलता है, वह किसी-न-किसी पाप का ही फल होता है|

विश्वामित्र से यह सब देखा न गया| वे राजा रानी के पास पहुचें और बोले, “अरे! तुम लोग यंहा बैठे हो और मै तुम्हे नगर भर ढूढ़ता फिर रहा हूं|”

कुछ वर्षों पुरानी कहानी है, जब देश में रियासतें थी, पर इस कथा की सीख आज भी अमर है| एक राजा के दीवाने थे; काम करते-करते बूढ़े हो गए| वह राजा के पास पहुँचे|

विश्वामित्र के जाने के उपरांत राजा हरिश्चंद्र सोच में डूब गए कि ‘अब मै क्या करूं? इस अनजान नगर में कोई मुझे ॠण भ नहीं दे सकता| अब तो एक ही उपाय है की मै स्वयं को बेच दूं|’

संत-महात्मा और उनको पहचानने वाले बहुत ही दुर्लभ है| आज तो दम्भ, पाखण्ड और बनावटीपन इतना हो गया कि असली संत-महात्मा को पहचानना अत्यन्त ही कठिन कार्य हो गया है| पर सच्चे जिज्ञासु को पता लगता है| भगवान् कृपा करते है, तभी उनको पहचाना जा सकता है| अब उनकी पहचान क्या हो? हम उनकी पहचान नहीं कर सकते, हम तो अपनी पहचान कर सकते है|

श्री कृष्ण और अर्जुन बचपन के मित्र थे| एक बार दानियों की चर्चा हो रही थी| श्रीकृष्ण जी ने वार्तालाप के प्रसंग में कहा- “इस युग में कर्ण जैसा दूसरा दानी नहीं|” अर्जुन अपने बड़े भाई सम्राट युधिष्ठर से बड़ा परोपकारी एवं धर्मनिष्ठ दूसरे किसी को भी नहीं मानते थे|

एक चरवाहे का बेटा चीमो हर रोज अपनी भेड़ें चराने के लिए मैदान में जाया करता था | वह रोज सुबह भेड़ों को लेकर हरे-भरे मैदानों की ओर चल पड़ता था | सूरज डूबने से पहले ही वह घर को वापस चल देता था |