ईश्वर के दर का नारी के लिये खुलना! – ललित गर्ग
केरल के विख्यात सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश एवं पूजा करने रास्ता खोलकर सुप्रीम कोर्ट ने नारी की अस्मिता एवं अस्तित्व को एक नयी पहचान दी है। बहुप्रतीक्षित फैसले में कोर्ट ने साफ कर दिया है कि यह पूजा के अधिकार के साथ ही स्त्री-पुरुष समानता के अधिकार का मामला भी है। महज स्त्री होने के आधार पर उन्हें मंदिर में पूजा करने से रोका नहीं जा सकता। कोर्ट ने माना है कि मंदिर में पूजा के लिए किसी कानून की जरूरत ही नहीं, यह तो उनका संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है। लेकिन रूढ़िवादी एवं जड़तावादी समाज में उदारता और नारी समानता का यह निर्णय महिलाओं के लिय एक नयी सुबह का आगाज है।
उचित तो यही होता कि यह मसला अदालत तक जाना ही नहीं चाहिए था। संबंधित पक्ष एवं धर्माचार्यों को स्वतः ही अपने विवेक से महिलाओं के सम्मान में उचित निर्णय लेना चाहिए था। ऐसा न होने से इस मसले ने अनेक प्रश्न खड़े किये हैं। जैसे ईश्वर का कोई भी रूप या धर्मस्थान स्त्री-पुरुष में भेद कैसे कर सकता है? आखिर जब स्त्री को देवी के तौर पर पूजित किया जाता है तब फिर उसे ही ईश्वर के घर यानी मंदिर में प्रवेश करने से कैसे रोका जा सकता है? सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं को प्रवेश न देने के पीछे एक मान्यता यह रही है कि भगवान अयप्पा ब्रताचारी स्वरूप में हैं, लेकिन इस कारण से महिलाओं को उनके मंदिर से दूर कैसे रखा जा सकता है? प्रश्न यह भी है कि भगवान अयप्पा उन महिला भक्तों की भावनाओं की अनदेखी कैसे कर सकते हैं जो उनके दर्शन की अभिलाषा रखती हों? एक जाग्रत समाज वही होता है जो देश, काल और परिस्थितियों के हिसाब से स्वयं को और साथ ही अपना परंपराओं एवं धार्मिक मान्यताओं को बदलता रहे। जिस समाज में ऐसा नहीं होता वह जड़ता का शिकार होता है।
निःसंदेह यह भी विचारणीय है कि जब हमारा संविधान एवं आधुनिक सोच महिलाओं को लेकर कोई भेद नहीं करता तो इस युग में इस सोच को सही कैसे कहा जा सकता है कि मासिक धर्म के दौरान महिलाएं मंदिर में प्रवेश के योग्य नहीं रह जातीं। यह विरोधाभासी एवं विडम्बनापूर्ण सोच तो एक तरह से स्त्री शक्ति और मातृ शक्ति का अनादर है। इस निर्णय से महिलाओं को न केवल सम्मानपूर्वक पूजा-अर्चना करने का अधिकार देने की बात कही गयी है बल्कि स्त्री-पुरुष की समानता पर मोहर भी लगाई गयी है। युगों से आत्मविस्मृत नारी को अपनी अस्मिता का भान कराने की दृष्टि से इस तरह के ऐतिहासिक निर्णय न केवल पुरुष मानसिकता को बदलने में सहायक होंगे बल्कि एक समतामूलक समाज की संरचना भी हो सकेगी।
तमाम नारी उत्थान एवं समानता के अभियानों के बावजूद इस तरह की अनेक पाबंदियों एवं संकीर्ण सोच का होना नारी जीवन की त्रासदी एवं उसके दोयम दर्जा होने की स्थितियों को ही व्यक्त करती है। इस जड़ जीवन से नारी को मुक्ति दिलाने के लिये कोर्ट का निर्णय महत्वपूर्ण माना जा रहा है। धार्मिक महत्व और आस्था के इस मामले पर कोर्ट के निर्णय पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं भी सामने आ रही हैं। फैसले का व्यापक स्तर पर स्वागत हो रहा है, तो कुछ असहमति के स्वर भी सुनाई दे रहे हैं। त्रावणकोर देवासन बोर्ड ने अन्य धार्मिक प्रमुखों से विचार-विमर्श के बाद फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की बात कही है। माना जा रहा है कि दूरगामी असर वाले इस फैसले का व्यापक राजनीतिक असर भी पड़ सकता है। जिस देश का संविधान छुआछूत, ऊंचनीच ही नहीं, धर्म, जाति, समुदाय और लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है, उस देश में इन्हीं आधारों पर किसी धर्मस्थल में प्रवेश पर ऐसा कोई प्रतिबंध जायज कैसे हो सकता है? इन्हीं तर्कों पर सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर परिसर को सभी के लिए खोलने का आदेश जारी कर दिया।
शेर चलते हुए आगे भी देखता है और पीछे मुड़कर भी देखता है। आज प्रश्न केवल सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश एवं पूजा का ही नहीं है, बल्कि दुनिया के सम्पूर्ण महिला समाज का है, वह आज जिस पड़ाव पर खड़ा है, वहां से जब उसके आगे बढ़ते कदमों को देखा जाता है तो उनकी क्षमताओं का विस्तार हुआ है, आज वह हर क्षेत्र में अग्रणी है, महिलाओं ने सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। उसके कर्तृत्व का परचम हर क्षेत्र में फहरा रहा है। महानगरों में फैलती हुई सडकों की तरह महिलाओं का कार्यक्षेत्र भी अब फैलता जा रहा है। निःसंदेह महिलाओं ने ज्ञान-विज्ञान से अपने कद को ऊंचा उठाया है लेकिन इस पड़ाव पर ठहर कर जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के पूजा जैसे कई प्रश्न उत्तर पाने कि प्रतीक्षा में खड़े नजर आते हैं। कोर्ट ने आधुनिक सोच वाले समाज में भी मासिक धर्म के नाम पर भेदभाव की सोच को खारिज करते हुए कहा कि जो समाज हर जगह समानता की वकालत करता हो, वह ऐसा सोच भी कैसे सकता है? कोर्ट ने माना कि परंपरा के नाम पर लिंग आधारित यह विभेद पितृसत्ता का पोषण है, जिसे बदला ही जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद अब न सिर्फ हर उम्र की महिलाएं मंदिर में प्रवेश कर सकेंगी, वरन इसका असर उन तमाम धार्मिक स्थलों पर भी पड़ सकता है, जहां अलग-अलग कारणों से अलग-अलग तरह के नियम देखने को मिलते हैं।
ऐसे सकारात्मक सोच को विकसित करके कोर्ट सदियों से चले आ रहे पुरुषों के पारंपरिक नजरिया को बदल सकती है, जहां पुरुष को स्त्री के मालिक के रूप में ही देखने का नजरिया रहा है। इसलिए अब तक सारे अहम फैसलों में पुरुष का ही वर्चस्व बना रहा है। कैसी दुर्भाग्यपूर्ण विसंगति है कि नारी का शिक्षित, आत्मनिर्भर एवं कर्तृत्व सम्पन्न होने पर भी उसका शोषण समाप्त होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। जबकि सच यह है कि पुरुष ने नारी को आधार बनाकर ही उच्च सोपानों को छुआ है। पुरुष की मानसिकता महिलाओं की प्रगति को कुछ समय के लिये बाधित कर सकती है लेकिन रोक नहीं पायेंगी क्योंकि परिवार, समाज और राष्ट्र का हित नारी प्रगति में ही निहित है। नारी की समता और क्षमता से न केवल परिवार में संतुलन रहता है बल्कि समाज एवं राष्ट्र को संरक्षण भी मिलता है।
नारी समाज में अभिनव स्फूर्ति, समानता एवं अटूट आत्मविश्वास भरने के लिये पुरुषों की मानसिकता बदलना जरूरी है। जहां केवल पुरुष की मर्जी चलती हो, स्त्री की मर्जी कोई मायने न रखती हो, वहां स्त्री पुरुष की चल संपत्ति या वस्तु जैसी हो जाती है, उसके प्रति भेदभाव का नजरिया पनपने लगता है, उसे कमजोर समझा जाने लगता है, वस्तुतः एक महिला प्रकृति से तो कमजोर होती ही है, उसे शक्ति से भी इतना कमजोर बना दिया जाता है कि वह अपनी मानसिक सोच को भी उसी के अनुरूप ढाल लेती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय एवं उसकी जागरूकता नारी पर सदियों से चले आ रहे दुर्भाग्य को मिटाकर उसे गौरव के साथ जीने का धरातल देंगी। इसी से नारी के जीवन में उजाला होगा और वह सदियों से उस पर लादी जा रही हीनता एवं दुर्बलता की ग्रंथियों से मुक्त हो सकेगी।
ध्यान रहे कि हिन्दूूू समाज इसी कारण विशिष्ट है कि वह समय के साथ अपनी धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं एवं परंपराओं में परिवर्तन करने की सामथ्र्य एवं तैयारी रखता है। इस सामथ्र्य का प्रदर्शन करते रहने की आवश्यकता है, क्योंकि तभी उन मान्यताओं और परंपराओं से मुक्ति मिल सकती है जो धार्मिक संकीर्णता, भेदभाव या फिर असमानता को इंगित करती हैं। अगर इस फैसले का दूरगामी असर होता है तो इसमें भयभीत क्यों हो? धर्म और संस्कृति के नाम पर किसी भी तरह के भेदभाव को संरक्षण मिलना दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा।
प्रेषक (ललित गर्ग)