परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है, सृष्टि के कण-कण में बस उसे महसूस किया जा सकता है!
1. एक बार एक व्यक्ति ने परमात्मा से प्रार्थना की- ‘परमात्मा! कृपया मुझसे वार्तालाप कीजिए।’ प्रार्थना करते समय पेड़ पर एक चिड़िया चहचहाने और गाने लगी, पर व्यक्ति ने उसे नहीं सुना। वह प्रार्थना करता रहा- ‘प्रभु! कृपया मुझसे वार्तालाप कीजिए।’ सहसा, बादल गरज उठे और आसमान में बिजली कौंध उठी, पर व्यक्ति ने उसे भी नजरअंदाज कर दिया। उस रात व्यक्ति फिर से प्रार्थना करने बैठ गया। वह कहने लगा- ‘प्रभु! कृपया मुझे अपने दर्शन दीजिए।’ आसमान में एक सितारा तेजी से चमकने लगा। तब भी व्यक्ति ने उसे नहीं देखा। व्यक्ति व्याकुल हो उठा और चिल्लाने लगा-‘प्रभु ! मुझे चमत्कार दिखाइए।’ उस रात उसके पड़ोसी के घर एक बालक का जन्म हुआ और उसने अपने जीवन की पहली चीख-पुकार की, पर व्यक्ति ने उस पर भी ध्यान नहीं दिया। अगले दिन व्यक्ति बाहर गया। चलते-चलते वह मूक रूप से प्रार्थना करने लगा- ‘प्रभु! मुझे स्पर्श कीजिए और मुझे यह बताइए कि आप मेरे संग हैं।’ सहसा एक तितली आदमी की बांह पर आ बैठी, पर व्यक्ति ने उसे हटा दिया।
2. अंत में व्यक्ति चिल्ला उठा-‘प्रभु! मुझे आपकी सहायता की जरूरत है।’ व्यक्ति को एक मित्र की चिट्ठी प्राप्त हुई, जिसमें उसने लिखा था कि कैसे उसने प्रभु प्राप्ति का मार्ग ढूंढ़ लिया है, पर व्यक्ति ने चिट्ठी को फाड़ कर फेंक दिया। व्यक्ति अब व्याकुल हो उठा था। वह रोता रहा और प्रभु से निवेदन करता रहा कि वे उससे एक बार बातचीत करें। अन्त में, प्रभु ने उसे एक दिव्य स्वप्न में दर्शन दिए और उससे कहा, ‘घबराओ नहीं मेरे बेटे, तुमसे प्रेम किया जा रहा है, पर तुम मेरे आशीषों को ग्रहण नहीं कर रहे, क्योंकि वे तुम्हें उस रूप में नहीं मिल रहे, जिसकी तुम अपेक्षा करते हो।’
3. परमात्मा तो उसी का नाम है, जिसकी कोई परिभाषा नहीं है। परमात्मा अर्थात अपरिभाष्य। इसलिए यदि हम परमात्मा की परिभाषा पूछेगे तो उलझन में पड़ेगे। हम जो भी परिभाषा बनायेगे वही परिभाषा गलत होगी। और यदि हमने कोई परिभाषा पकड़ ली तो परमात्मा को जानने से सदा के लिए वंचित रह जायेगे। परमात्मा पूर्ण समग्रता का नाम है। संसार की तथा सृष्टि की अनुभूति तथा अनुभव के अनुसार परमात्मा की और सब चीजों की परिभाषा हो सकती है, समग्रता के संदर्भ मंे, पर समग्रता की परिभाषा किसके संदर्भ में होगी?
4. जैसे हम कह सकते हैं कि आप रमेश के छप्पर के नीचे बैठे हो, रमेश का छप्पर वृक्षों की छाया में है, वृक्ष चांद-तारों की छाया में हैं, चांद-तारे आकाश के नीचे हैं, फिर आकाश। फिर आकाश के ऊपर कुछ भी नही। सब आकाश में है, तो आकाश किस में होगा? यह तो बात बनेगी ही नहीं। जब सब आकाश में है, तो अब आकाश किसी में नहीं हो सकता। इसलिए आकाश तो होगा, लेकिन किसी में नहीं होगा। ऐसे ही परमात्मा है।
5. परमात्मा का अर्थ है, जिसमें सब हैं, जिसमें बाहर का आकाश भी है और भीतर का आकाश भी है, जिसमें पदार्थ भी है और चैतन्य भी जिसमें जीवन भी है और मृत्यु भी-दिन और रात, सुख और दुख, पतझड़ और बसंत, जिसमें सब समाहित है।
6. परमात्मा सारे अस्तित्व का संदर्भ है, उसकी पृष्ठभूमि है। इसलिए स्वयं परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। ऐसा नहीं है कि परिभाषा न की गई हों, मनुष्य ने परमात्मा की अपनी-अपनी अनुभूति तथा अनुभव के अनुसार परमात्मा की परिभाषाएं की हैं, लेकिन सब परिभाषाएं अपूर्ण हैं। और अगर हमने तय किया कि पहले परमात्मा की परिभाषा करेंगे, फिर परमात्मा की खोज की यात्रा करेंगे, तो न तो परिभाषा होगी, न कभी यात्रा होगी। परिभाषा तो छोटी-छोटी चीजों की हो सकती है। शब्दों की सामथ्र्य कितनी है? शब्द में जैसे ही कुछ भी हम कहेगे वह सीमित हो जाएगा।
7. परमात्मा के खोजी लाआस्तु जीवन-भर चुप रहे। लोगों ने उनसे हजार बार सत्य के संबंध में पूछा किन्तु वह चुप रहे। वह और सब चीजों के संबंध में बोलते थे, लेकिन सत्य के संबंध में चुप रह जाते थे। और अंत में जब बहुत उस पर आग्रह तथा जोर डाला गया कि जीवन से विदा लेते क्षण कुछ तो सूचना तथा संकेत दे जाओ, आपने जो जाना था, आपने जो पहचाना था, उस अनुभव के बारे में कुछ तो बता जाओ। तो लाआस्तु ने जो पहला ही वचन लिखा वह थाः सत्य बोला कि झूठ हो जाता है। कोई बोला गया सत्य सत्य नहीं होता उसका कारण है? सत्य का अनुभव तो होता है निशब्द में, शून्य में, ओर जब हम बोलते है तो शून्य को समाना पड़ता है छोटे शब्दों में।
प्रदीप कुमार सिंह, शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक
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