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पेट्रोल-डीजल के दामों पर नियंत्रण की चुनौती – ललित गर्ग

पेट्रोल-डीजल के दामों पर नियंत्रण की चुनौती - ललित गर्ग

पेट्रोल डीजल की कीमतें नई ऊंचाई पर और डॉलर के मुकाबले रुपया अब तक के सबसे निचले स्तर पर होने से आर्थिक स्तर पर आम भारतीयों का दम-खम सांसें भरने लगा है, जीवन दुश्वार हो गया है फिर चाहे हम जितनी भी ऊंची डींगें मारते फिरें कि भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हो रहा है। 8.2 फीसदी की जीडीपी के बीच आम लोगों से जुड़ी अर्थव्यवस्था की ये स्थितियां सरकार के सामने चुनौती पेश कर रही हैं, लेकिन पेट्रोल-डीजल की कीमतों में लगी आग सरकार की नीति एवं नियत पर सवाल खड़े कर रही है।

सही है कि रुपये की वैल्यू में गिरावट और मजबूती का सीधा असर हमारी जिंदगी पर पड़ता है। कमजोर रुपया आमतौर पर पेट्रोल-डीजल की महंगाई के अलावा कई अन्य मदों में हमारी जेब पर बुरा असर डालता है। हालांकि, कुछ लोगों को इसका फायदा भी मिलता है। हाल के दिनों में पेट्रोल और डीजल की कीमत साल 2014 के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई है। पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर आम-आदमी की थाली पर पड़ता है। गरीबांे के साथ यह क्रूर मजाक है। महंगाई बढ़ने का कारण बनता है पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी होना। इससे मध्यम एवं निम्न वर्ग के लोगों की हालत तबाही जैसी हो जाती है, वे अपनी परेशानी का दुखड़ा किसके सामने रोए? बार-बार पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाना सरकार की नियत में खोट को ही दर्शाता है, इस तरह की सरकार की नीति बिल्कुल गलत है, शुद्ध बेईमानी है। इस तरह की नीतियों से जनता का भरोसा टूटता है और यह भरोसा टूटना सरकार की विफलता को जाहिर करता है।

जिसके पास सब कुछ, वह स्वयंभू नेता और जिसके पास कुछ नहीं वह निरीह जनता। इसी परिभाषा ने नेताओं के चरित्र को धुंधला दिया है। तेल की कीमत बढ़ाने का फैसला सरकार भले अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों के कारण ले रही हो, या सरकार का यह दावा कि इससे मिलने वाले राजस्व का उपयोग गरीबों के लिए आवास, शौचालय बनाने और बिजली पहुंचाने पर खर्च किया जाता है। इस तरह के तर्क लोगों के गले नहीं उतरते क्योंकि पहले ही सरकार ने अलग-अलग मदों में कई तरह के उप-कर लगा रखे हैं। नोटबंदी एवं जीएसटी के घाव अभी भरे ही नहीं कि ऊपर से इस तरह पेट्रोल-डीजल की बेलगाम होती दरें सरकार की तानाशाही को दर्शाती है। देश में ऐसे कितने लोग हंै जो कारों एवं मोटरसाइकिलों पर चलते हैं? क्या पेट्रोल-डीजल का उपयोग गरीब लोग नहीं करते? क्या गरीबों के नाम पर गरीबी का मजाक नहीं उडाया जा रहा है? क्या इसका असर किसानों, मजदूरों, गरीबों और मेहनतकशों पर नहीं पड़ेगा? आम जनता पर जबरन लादा जा रहा है इस तरह का भार। अतार्किक ढंग से गलत निर्णयों एवं नीतियों को जायज ठहराने की कोेशिशों से सरकार की छवि खराब ही होती है। आखिर दाम बढ़ाने एवं करों के निर्धारण में कोई व्यावहारिक तर्क तो होना चाहिए। क्योंकि जहां तक रुपये की गिरती कीमत को थामे रखने का सवाल है तो यह मोदी सरकार के लिये कोई असंभव कार्य नहीं है। इन विकराल होती स्थितियों में सरकार को ही कोई कठोर कदम उठाने होंगे। ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे पेट्रोल-डीजल सस्ता हो सके। इस मामले में कुछ दक्षिण एशियाई देशों का उदाहरण हमारे सामने है, जहां पेट्रोल-डीजल के दाम एक सुनिश्चित दायरे में रहते हैं, भले ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में इसके भाव ऊपर-नीचे होते रहे एवं मुद्रा विनिमय की स्थितियों में भी उतार-चढ़ाव चलता रहे। वहां की सरकारें पेट्रोल-डीजल के दामों को बांधे रखती है। इस प्रक्रिया से भले ही सरकार की राजस्व धनराशि घटती-बढ़ती रहे, लेकिन आम जनजीवन इनसे अप्रभावित रहता है। भारत में भी ऐसी ही स्थितियों को लागू करने की जरूरत है, ताकि आम-जन एवं उपभोक्ताओं को मुसीबत के कहर से बचाया जा सके। महंगाई की मार से बचाने का उपाय सरकार को ही करना होगा और वही सरकार सफल है जो इन आपाद स्थितियों से जनजीवन को प्रभावित नहीं होने देती।

पेट्रोल-डीजल के दामों पर नियंत्रण की चुनौती

पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ने से केवल अमीर या मध्यम वर्ग पर असर पड़ता है, ऐसी बात नहीं है। उन पर भी असर पड़ता है, लेकिन ज्यादा परेशानी आम आदमी को भुगतनी पड़ती है, बजट उनका डांवाडोल होता है, परेशान वे ही होते हैं। क्योंकि इससे ढुलाई, सार्वजनिक परिवहन और फिर उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ती हैं। विडम्बनापूर्ण एवं विरोधाभासी स्थिति है कि विकास दर ने ऊपर का रुख किया हुआ है फिर भी महंगाई कम होने की बजाय ऊपर चढ़ रही है, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें उनसे पार पाने में मुश्किलें ही पैदा करेंगी। कोई भी सरकार स्पष्ट बहुमत में होने का अर्थ यह नहीं कि वह मनमानी करें। गरीबों के कल्याण की योजनाओं के लिये बढ़ोत्तरी अच्छी बात है, लेकिन इसके चलते आमजन जीवन को अस्त-व्यस्त करने की बात गले नहीं उतरती। क्योंकि पेट्रोल और डीजल से मिलने वाले राजस्व का कितना हिस्सा अब तक गरीबों के उत्थान के लिए उपयोग किया गया है, इसका कोई जवाब शायद उनके पास नहीं होगा।

नेतृत्व की पुरानी परिभाषा थी, ”सबको साथ लेकर चलना, निर्णय लेने की क्षमता, समस्या का सही समाधान, कथनी-करनी की समानता, लोगांे का विश्वास, दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता।“ लेकिन अतार्किक पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी ने इस परिभाषा पर पानी फेर दिया है। 2014 चुनावों से पहले बीजेपी का नारा था, ‘बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ सरकार बने चार साल बीत चुके हैं लेकिन जो महंगाई कांग्रेस राज में भाजपा के लिए डायन थी वह अब देवी बन गई है। लगातार महंगाई बढ़ती ही जा रही है लेकिन पता नहीं किन विवशताओं के चलते विपक्ष भी सरकार के खिलाफ मुंह खोलने को तैयार नहीं है। कच्चे तेल की कीमत मनमोहन सरकार की तुलना में कोई आसमान नहीं छू रही हैं लेकिन मोदी सरकार में लगातार पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं। मोदी सरकार की जनलुभावन योजनाओं में इस तेल-नीति ने पलीता लगा दिया है। आगामी आम चुनाव में यह मुद्दा चुनावी हार-जीत का निर्णायक मुद्दा बन जाये तो कोई बड़ी बात नहीं है।

डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ा कर गरीबों के उत्थान का हवाला देना तर्कसंगत नहीं है। जबकि नेताओं और नौकरशाहों की फिजूलखर्ची और ठाठ-बाट में कोई कमी नहीं आई है। सरकार की नीतियों पर संदेह होने लगा है, इन स्थितियों में कैसे नया भारत निर्मित होगा? कैसे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा? देखने में आ रहा है कि सरकार अपनी नीतियों के माध्यम से उच्च वर्ग एवं मध्यम वर्ग पर कठोरता बरत रही है, लेकिन आखिरकार वंचित वर्ग इस कठोरता का शिकार हो रहा है। जनता को अमीर बना देंगे, हर हाथ को काम मिलेगा, सभी के लिए मकान होंगे, सड़कें, स्कूल-अस्पताल होंगे, बिजली और पानी होगा- सरकार की इन योजनाओं एवं नीतियों के जनता मीठे स्वप्न लेती रहती है। कोई भी सरकार हो, जनता को मीट्ठे सपने ही दिखाये जाते हैं, पर यह दुनिया का आठवां आश्चर्य है कि कोई भी सपना या लक्ष्य अपनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं हुआ। नेतृत्व चाहे किसी क्षेत्र में हो- राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, वह सुविधानुसार  अपनी ही परिभाषा गढ़ता रहा है। न नेता का चरित्र बन सका, न जनता का और न ही राष्ट्र का चरित्र बन सका। सभी भीड़ बनकर रह गए। लोकतंत्र को भीड़तंत्र बनने दिया जा रहा है। अपने स्वार्थ हेतु, प्रतिष्ठा हेतु, आंकड़ों की ओट में नेतृत्व झूठा श्रेय लेता रहा और भीड़ आरती उतारती रही। लेकिन इस तरह की स्थितियों में कोई भी राष्ट्र कभी भी मजबूत नहीं बनता।

प्रेषक
(ललित गर्ग)
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