आध्यात्मिक संतुष्टि की अनुभूति शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती!
(1) आध्यात्मिक संतुष्टि की अनुभूति शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती:
परमात्मा को समर्पित करके, एकाग्रचित्त होकर तथा पवित्र हृदय से अपनी नौकरी या व्यवसाय करने से निरन्तर गजब की आध्यात्मिक संतुष्टि की प्राप्ति होती है। आध्यात्मिक संतुष्टि का स्वाद तो ‘‘गूँगे व्यक्ति का गुड़’’ खाने के समान है। गूँगा व्यक्ति गुड़ के स्वाद को तो महसूस कर सकता है लेकिन उसे अपनी वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता। गुड़ खाने वाले गूँगे व्यक्ति के आत्मिक सुख को उसके हाव-भाव तथा उसके हँसते हुए चेहरे से ही जाना जा सकता है। ईश्वरीय गुणों को ग्रहण तथा प्रस्फूटित करने के लिए निरन्तर प्रयास तथा अनंत धैर्य चाहिए। ईश्वर को हम लोग बाहर ढूंढ़ते हैं जबकि ईश्वर तो हमारे पवित्र हृदय में वास करता है। हम संसार में सेवा भावना से वास करें किंतु उससे प्रभावित न हों तो हमें परमात्मा द्वारा रचित उसकी इस सृष्टि में उनका दिव्य स्वरूप दिखाई देगा। इसलिए हमें अपने अन्दर के ईश्वरीय गुणों की सुगन्ध को प्रस्फुटित होने देना चाहिए। गुणों की यह सुगन्ध ही हमें स्थायी तृप्ति प्रदान करती है।
(2) सृष्टि की प्रत्येक रचना का सम्मान करना चाहिए:
हमें ईश्वर के बताये हुए रास्ते पर चलकर तथा उन्हें आत्म समर्पण करके प्रत्येक कार्य को करना चाहिए। हमारा मानना है कि मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपने प्रत्येक कार्य या व्यवसाय को ‘आध्यात्मिक संतुष्टि’ लिए करके अपनी आत्मा का विकास निरन्तर करना है। लोक कल्याण के कार्यों द्वारा परमात्मा को अभिव्यक्त करने की क्रिया ही प्रत्येक कार्य या व्यवसाय द्वारा जीवन जीने की कला है। परमात्मा सर्वव्यापी हैं, हर जगह विद्यमान हैं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ते। हमें अपने प्रत्येक कार्य के प्रति जागरूक रहना है। हर पल आत्मा की उपस्थिति का अभ्यास करना ही परमात्मा को जानने की सर्वश्रेष्ठ क्रिया है। हमें अपनी नौकरी या व्यवसाय के माध्यम से सृष्टि की प्रत्येक रचना का सम्मान करना चाहिए तथा प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा के अनुसार प्रत्येक कार्य अपनी नौकरी या व्यवसाय करके अपनी आत्मा का विकास करना सबसे सरल उपाय है।
(3) यदि हम मात्र भौतिक सुख के लिए जीवन यापन करेंगे तो हम परमात्मा से दूर हटते चले जायेंगे:
हमारे अंदर किसी कार्य या व्यवसाय को करने में जरा सा भी आलस्य नहीं होना चाहिए। जिस क्षण हमारे मन में छोटा सा भी शुभ भाव उत्पन्न हो, उसी समय हमें ईश्वर का नाम लेकर लोक कल्याण के काम में लग जाना चाहिए। हमारी सर्वोंत्तम उच्च अवस्था लोक कल्याण की भावना से अपने प्रत्येक कार्य या व्यवसाय में सदैव रत् रहने में है। यदि हम मात्र भौतिक सुख के लिए जीवन यापन करेंगे तो हम परमात्मा से दूर हटते चले जायेंगे। वास्तव में जब हमें किसी कार्य या व्यवसाय में आध्यात्मिक संतुष्टि प्राप्त होती है तब परमात्मा से हमारा निकट का संबंध होता है। हमारा मानना है कि प्रकृति ईश्वर का विराट स्वरूप है इसलिए हमें प्राकृतिक जीवन जीना चाहिए। प्रकृति का एक नियम है कि स्वभाव तथा जीवन बदलने में कुछ समय लगता है। यदि हमारी धैर्यपूर्ण बनायी योजना होगी तो वैसे ही कार्य के शुभ परिणाम भी होंगे।
(4) साहसी व्यक्ति के जीवन में बाधाएं ऊर्जा स्रोत्र का काम करती है:
परमात्मा की राह में चलने वाले लोग सुख या दुख में विचलित नहीं होते। परमात्मा शरीर से नहीं वरन् हमारे कार्यों में एक शुभ प्रेरणा के रूप में होते हैं। हमारा मानना है कि हमारे पवित्र भावना से किये जाने वाले कार्यों से ही लोक कल्याण का व्यापक स्वरूप प्रगट होता है। हमारे शुद्ध आचरण से हमारी आत्मा का विकास होता है। वास्तव में आध्यात्मिक संतुष्टि से एक नया जीवन, एक नई स्फूर्ति, एक नई रचना तथा एक नया उत्साह उत्पन्न होता है। साहसी व्यक्ति के जीवन में
बाधाएं ऊर्जा स्त्रोत का काम करती है तथा उसके भीतर सजगता बढ़ती है। ईश्वर ने हम सबको समान क्षमताएं दी हैं, एक व्यक्ति समयानुकूल उन क्षमताओं का भरपूर उपयोग करके जीवन में आगे ही आगे बढ़ता है, दूसरा उन क्षमताओं का उपयोग समय रहते नहीं कर पाता है। जब हम लोक कल्याण में रत रहते हैं, तब हम मनुष्य की वास्तविक भूमिका में होते हैं, और यह वही समय होता है जबकि अदृश्य शक्तियाँ हमें ईश्वरीय मार्गदर्शन तथा प्रेरणा निरन्तर प्रदान करतीं हैं। किसी ने सही ही कहा है कि मनुष्य का जन्म तो सहज होता है लेकिन मनुष्यता उसे कठिन परिश्रम से प्राप्त करनी पड़ती है।
– डा. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं
संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ