एकादशी माहात्म्य – माघ शुक्ला कामदा एकादशी
धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे – हे भगवन्! मैं आपको कोटि-कोटि नमस्कार करता हूँ| अब आप कृपा करके चैत्र शुक्ला एकादशी का माहात्म्य कहिए| श्रीकृष्ण कहने लगे कि धर्मराज! यही प्रश्न एक समय राजा दिलीप ने गुरु वशिष्ठजी से किया था और जो समाधान उन्होंने किया वह सब मैं तुमसे कहता हूँ –
प्राचीनकाल में रत्नपुर नामक एक नगर था| वहाँ पर अनेक ऐश्वर्यों से युक्त पुण्डरीक नाम का एक राजा राज्य करता था| रत्नपुर नगर में अनेक अप्सरा, किन्नर तथा गन्धर्व वास करते थे| उनमें ललिता और ललित नाम के दो स्त्री-पुरुष भी थे| उन दोनों में अत्यन्त स्नेह था, यहाँ तक कि अलग-अलग हो जाने पर दोनों व्याकुल हो जाते थे| एक समय पुण्डरीक की सभा में अन्य गन्धर्वों के सहित ललित भी गान कर रहा था| गाते-गाते उसको अपनी प्रिय ललित का ध्यान आ गया और उसके ध्यान में स्वर भंग होने के कारण गाने का स्वरूप बिगड़ गया| ललित के मन का भाव जानकार कर्कोट नामक नाग ने पद भंग होने का कारण राजा से कह दिया| तब पुण्डरीक ने क्रोधपूर्वक कहा कि तू मेरे सामने गाता हुआ अपनी स्त्री का स्मरण कर रहा है अतः तू कच्चा मांस और मनुष्यों को खाने वाला राक्षस बनकर अपने किये कर्म का फल भोग| पुण्डरीक के शाप से ललित उसी क्षण महाकाय विकराल राक्षस हो गया| उसका मुख अत्यन्त भयंकर, नेत्र सूर्य चन्द्रमा की तरह प्रदीप्त हो गए तथा मुख से अग्नि निकलने लगी| उसकी नाक पर्वत की कंदरा के समान विशाल हो गई और गर्दन पर्वत के समान लगने लगी| सिर में बाल पर्वतों पर खड़े वृक्षों के समान लगने लगे तथा भुजाएँ अत्यन्त लम्बी हो गई| कुल मिलाकर उसका शरीर आठ योजन के विस्तार में हो गया| इस प्रकार राक्षस होकर वह अनेक प्रकार के दुःख भोगने लगा| जब उसकी प्रियतमा ललिता को यह सब वृत्तान्त मालूम हुआ तो उसको अत्यन्त खेद हुआ और वह अपने पति के उद्धार का यत्न सोचने लगी| वह राक्षस अनेक प्रकार के घोर दुःख सहता घने वनों में रहने लगा| उसकी स्त्री उसके पीछे-पीछे जाती और अनेक प्रकार से विलाप करती रहती| एक बार ललिता अपने पति के पीछे घूमती-घूमती विन्ध्याचल पर्वत पर चली गई, जहाँ पर श्रृंगी ऋषि का आश्रम था| ललिता शीघ्र ही श्रृंगी ऋषि के आश्रम में गई और वहाँ जाकर विनीत भाव से प्रार्थना करने लगी|
उसे देखकर श्रृंगी ऋषि बोले – हे सुभगे! तुम कौन हो और यहाँ किसलिए आई हो? ललिता बोली कि हे मुने! मेरा नाम ललिता है| मेरा पति राजा पुण्डरीक के शाप से विशालकाय राक्षस हो गया है इसका मुझको महान दुःख है| उसके उद्धार का कोई उपाय बतलाइये| श्रृंगी ऋषि बोले – हे गंधर्वकन्या! अब चैत्र शुक्ला एकादशी आने वाली है, जिसका नाम कामदा एकादशी है| उसका व्रत करने से मनुष्य के सब कार्य सिद्ध होते हैं| यदि तू कामदा एकादशी का व्रत करके उसके पुण्य का फल अपने पति को दे तो वह शीघ्र ही राक्षस योनि से मुक्त हो जायेगा और राजा का शाप भी अवश्यमेव शान्त हो जायेगा|
मुनि के ऐसे वचन सुनकर ललिता ने चैत्र शुक्ला एकादशी आने पर उसका व्रत किया और द्वादशी को ब्राह्मणों के सामने अपने व्रत का फल अपने पति को देती हुई भगवान् से इस प्रकार प्रार्थना करने लगी – हे प्रभो! मैंने जो यह व्रत किया है इसका फल मेरे पतिदेव को प्राप्त हो जिससे वह राक्षस योनि से मुक्त हो जाएँ| एकादशी का फल देते ही उसका पति राक्षस योनि से मुक्त होकर अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त हुआ| फिर अनेक सुन्दर वस्त्राभूषणों से युक्त होकर ललिता के साथ विहार करने लगा| उसके पश्चात् वे दोनों विमान में बैठकर स्वर्गलोक को चले गये| वशिष्ठ मुनि कहने लगे कि हे राजन्! इस व्रत को विधिपूर्वक करने से समस्त पाप नाश को प्राप्त हो जाते हैं तथा राक्षस आदि की योनि भी छूट जाती है| संसार में इसके बराबर कोई और दूसरा व्रत नहीं है| इसकी कथा पढ़ने या सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है|
|| इस प्रकार एकादशी माहात्म्य का दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ||
फलाहार – इस दिन लूंगों का सागार लेना चाहिए| लूंगों अर्थात् ओंगा का फल| दूध, दही, फल आदि ले सकते हैं|