श्री गुरु अंगद साहिब जी की सुपुत्री बीबी अमरो श्री अमरदास जी के भतीजे से विवाहित थी| आप ने बीबी अमरो जी को कहा की पुत्री मुझे अपने पिता गुरु के पास ले चलो| मैं उनके दर्शन करके अपना जीवन सफल करना चाहता हूँ| पिता समान वृद्ध श्री अमरदास जी की बात को सुनकर बीबी जी अपने घर वालो से आज्ञा लेकर आप को गाड़ी में बिठाकर खडूर साहिब ले गई|
एक तपस्वी जो कि खडूर साहिब में रहता था जो कि खैहरे जाटो का गुरु कहलाता था| गुरु जी के बढ़ते यश को देखकर आपसे जलन करने लगा और निन्दा भी करता था| संवत १६०१ में भयंकर सूखा पड़ा| लोग दुखी होकर वर्षा कराने के उदेश्य से तपस्वी के पास आए| पर उसने कहना शुरू किया कि यहाँ तो उलटी गंगा बह रही है|
खडूर के चौधरी को मिरगी का रोग था| वह शराब का बहुत सेवन करता था| एक दिन गुरु जी के पास आकर विनती करने लगा कि आप तो सब रोगियों का रोग दूर कर देते हो, आप मुझे भी ठीक कर दो| लोगों की बातों पर मुझे विश्वास तब आएगा जब मेरा मिरगी का रोग दूर हो जायेगा| गुरु जी कहने लगे चौधरी!
एक बार डले गांव के रहने वाले सिक्ख भाई दीपा, नरायण दास व बुला गुरु जी के पास आए| उन्होंने गुरु जी के चरणों में प्रार्थना की कि हमारा जन्म-मरण का दुःख दूर हो जाए|
एक दिन अमरदास जी गुरु जी के स्नान के लिए पानी की गागर सिर पर उठाकर प्रातःकाल आ रहे थे कि रास्ते में एक जुलाहे कि खड्डी के खूंटे से आपको चोट लगी जिससे आप खड्डी में गिर गये| गिरने कि आवाज़ सुनकर जुलाहे ने जुलाही से पुछा कि बाहर कौन है?
एक क्षत्रि प्रेमा जिसे कोहड़ था, उसकी कोई देखभाल करने वाला नहीं था| गुरु जी की महिमा सुनकर गोइंदवाल आ गया|
बाऊली का निर्माण कार्य समाप्त हो गया| श्री गुरु अमरदास जी ने 84 पौड़िया गिन कर वचन किया कि जो नर-नारी इन 84 पौड़ियों पर बाऊली में 84 बार स्नान करेगा व 84 बार जपुजी साहिब के चौरासी पाठ करेगा तो उसकी जन्म-मरण की चौरासी कट-जाएगी|
बाउली की खुदाई का कार्य चल रहा था| बाउली की खुदवाई जब पानी तक पहुंच गई तो आगे पत्थरों की कठोरता आ गई|
सिखों को श्री लहिणा जी की योग्यता दिखाने के लिए तथा दोनों साहिबजादो, भाई बुड्डा जी आदि और सिख प्रेमियों की परीक्षा के लिए आप ने कई कौतक रचे, जिनमे से कुछ का वर्णन इस प्रकार है:
श्री गुरु अंगद देव जी (Shri Guru Angad Dev Ji) फेरु मल जी तरेहण क्षत्रि के घर माता दया कौर जी की पवित्र कोख से मत्ते की सराए परगना मुक्तसर में वैशाख सुदी इकादशी सोमवार संवत १५६१ को अवतरित हुए| आपके बचपन का नाम लहिणा जी था| गुरु नानक देव जी को अपने सेवा भाव से प्रसन्न करके आप गुरु अंगद देव जी के नाम से पहचाने जाने लगे|
गुरु अंगद देव जी (Shri Guru Angad Dev Ji) ने वचन किया – सिख संगत जी! अब हम अपना शरीर त्यागकर बैकुंठ को जा रहे हैं| हमारे पश्चात आप सब ने वाहेगुरु का जाप और कीर्तन करना है| रोना और शोक नहीं करना, लंगर जारी रखना| हमारे शरीर का संस्कार उस स्थान पर करना जहाँ जुलाहे के खूंटे से टकरा कर श्री अमरदास जी गिर पड़े थे|
एक दिन गोंदे क्षत्रि ने गुरु जी के पास आकर प्रार्थना की, कि सच्चे पातशाह! मेरा गांव जो कि व्यास नदी के किनारे स्थित है, वहां भूतों का निवास है जिसके कारण वह गांव बस नहीं रहा|
श्री गुरु अंगद देव जी के सुपुत्र दासू और दातू श्री अमरदास की महिमा दूर-दूर होते देख ईर्ष्या से भर गए| वे गुरुगद्दी संभालने के लिए गोइंदवाल चल पड़े|
कन्नौज के युद्ध में हारकर दिल्ली का बादशाह हमायूँ गुरु घर की महिमा सुनकर खडूर साहिब में सम्राट का वर प्राप्त करने के लिए आया| गुरु जी अपनी समाधि की अवस्था में मगन थे| पांच दस मिनट खड़े रहने पर भी जब उसकी और ध्यान नहीं दिया गया तो इसे उसने अपना निरादर समझा क्यूंकि उसे अपने बादशाह होने का अहंकार आ गया|
हरिपुर के राजा व रानी सावण मल की प्रेरणा से गुरु जी के दर्शन करने के लिए गोइंदवाल आए| सावण मल गुरु जी से बेनती की कि महाराज! हरिपुर का राजा अपनी रानी सहित आपके दर्शन करने आया है|
गुरु जी अपने पुराने मित्रों को मिलने के लिए कुछ सिख सेवको को साथ लेकर हरीके गाँव पहुँचे| गुरु जी की उपमा सुनकर बहुत से लोग श्रधा के साथ दर्शन करने आए| हरीके के चौधरी ने अपने आने की खबर पहले ही गुरु जी को भेज दी कि मैं दर्शन करने आ रहा हूँ| गाँव का सरदार होने के कारण उसमे अहम का भाव था|