गनिका जी (Ganika Ji)
गनिका एक वेश्या थी जो शहर के एक बाजार में रहती थी| वह सदा पाप कर्म में कार्यरत रहती थी| उसके रूप और यौवन सब बाजार में बिकते रहते थे| वह मंदे कर्म करके पापों की गठरी बांधती जा रही थी|
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जब से हो जाती तो उसके घर में रौनकें बढ़ जाती तथा महफिलें सजी रहतीं| रात को दीया जलते ही वह हार-श्रृंगार करके अपने सुन्दर यौवन को आकर्षित करती हुई बैठ जाती|
पर – सुआ पड़ावत गनिका तरी ||
सो हरि नैनहु की पूतरी ||
भक्तों ने वचन किया है कि तोते को पढ़ाती हुई गनिका भवजल से तर गई| वह परमात्मा के नयनों की पुतली बनी| वह भक्तों में गिनी जाने लगी| उसका ऐसा जीवन बदल गया|
उसके पाप एवं नरकी जीवन में से निकलने की कथा इस प्रकार है – वह बुरे कर्मों में व्यस्त हुई जीवन को ही भूल गई थी| मनुष्य जीवन के मनोरथ का उसे बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था| एक दिन एक साधू जिसके पास एक तोता था, वहां आ गया|
कहते हैं कि वह साधू नगर से बाहर रहता था| वह भीड़-भाड़ में कम ही आता| उस रात इतनी वर्षा हुई कि वहां ऊंची-नीची धरती जल-थल दिखाई देने लगी| साधू ने देखा कि सर्दी से उसका तोता भी मरने लगा है| यह तोता उसको प्राणों से भी प्यारा था, क्योंकि वह ‘राम-राम’ जपता था| उसने तोते के पिंजरे को उठाया तथा नगर की ओर चल पड़ा| उसने अपनी गोदड़ी तथा अन्य वस्त्र ऊपर लिए हुए थे| कुदरत की शक्ति का मुकाबला करना उसके वश से बाहर था| वह पैदल चलता हुआ नगर आ गया, पर कोई ठिकाना न मिला| रात का समय था| सब लोग अपने-अपने घरों में द्वार बंद करके बैठे हुए थे| बहुत घूमने-फिरने पर भी साधू को कोई ठिकाना न मिला, वह चलता रहा|
गनिका का घर आया| दिया जल रहा था, द्वार भी खुला हुआ था| वह राम का नाम लेकर भीतर चला गया| गनिका उसे देखकर मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई| उसने सोचा कि वर्षा और तूफान में भी उसके पास ग्राहक आया है, जो उसके तन का सौदा करेगा और उसको पैसे खटाएगा| उसने बड़ी खुशी से कहा…. आओ, मेरी आंखों में बैठो, मैं आपका रास्ता देख रही थी|
गनिका की यह बात सुन कर और उसके रूप तथा श्रृंगार को देख कर साधू बड़ा हैरान हुआ| साधू ने गनिका से कहा-‘पुत्री! बाहर वर्षा बहुत हो रही है जिस कारण मेरी झोंपड़ी बह गई| मैं अपने तोते सहित सहारा लेने आया हूं|’
‘पुत्री’ शब्द से गनिका का पापी मन कांप उठा| वह एक बार कांपी तथा फिर मायूस होकर बोली-‘आप ने रात ठहरना है?
हां, ‘पुत्री! हमने रात ठहरना है| हरेक आत्मा परमात्मा का अंश है और शरीर आत्मा का घर| शरीर को आश्रय देना नेक मार्ग पर चलना होता है| पुत्री! परमात्मा ने तुम्हें सुख के सभी साधन दिए हैं, तुम उसे याद करती होगी|
साधू सहज स्वभाव बोलता गया| उसकी आत्मा सचमुच ही बड़ी निर्मल थी, परन्तु गनिका जिसका वास्तविक नाम ‘चन्द्रमणी’ था, वह साधू की बातें सुनकर घबराने लगी| वह तो पापिन थी, उसने घबरा कर कहा – ‘आप साधू हैं?’
हां, ‘ मैं साधू हूं| मेरे मालिक ने मुझे साधू बना कर अपने नाम के सिमरन में लगाया है| वही मालिक सबका जीवन दाता और अन्न दाता है|’
गनिका के मन में भी कुछ नेक भाव आए, क्योंकि उस दिन से पहले उस जैसा साधू महात्मा पुरुष पहले कभी भी उसके पास नहीं आया था जो उसको पाप कर्म की ओर न लगाता| उसके पास वहीं पुरुष आते जो उसके तन का सौदा करके उसके मैले मन पर और अधिक मैल फैंक देते| उस दिन गनिका सुबह स्नान करके घूमती रही| वर्षा अभी भी हो रही थी|
‘आप साधू हैं, भगवान के भक्त! ठीक है| आओ…. बैठो और भीगे वस्त्र उतार कर दूसरे वस्त्र पहन लो| गनिका को शायद जीवन में पहली बार साधू की सेवा करने का अवसर मिला है| आओ…. क्या पता मेरे जीवन में ऐसी घटना होनी होगी|’
यह कह कर उसने साधू के भीगे वस्त्र उतरवाए और उसे गर्म वस्त्र दिए| उसने साधू और तोते के लिए आग जलाई| जब वह गर्म होकर अपने आपको ठीक अनुभव करने लगे तो तोते ने अपनी आदत अनुसार राम का नाम लेना शुरू कर दिया| चन्द्रमुखी गनिका को उनकी बातें अनोखी लगी| उसने साधू से पूछा – ‘महाराज! भोजन करोगे?’
हां, ‘पुत्री! मैं भी भूखा हूं और यह पक्षी भी भूखा है, जो भगवान ने हमारी किस्मत में लिखा है, वह देगा| आज नहीं तो कल| उसकी जैसी इच्छा है वैसा ही होना है|’ साधू ने उत्तर दिया|
‘मेरे पास जो कुछ है उसको स्वीकार करें-पर मैं गनिका (वेश्या) हूं, जिसे इस घर में आए बारह साल हो गए हैं| पुरुषों के मन की खुशियां पूरी करती रही हूं| मैं तो पापिन हूं, पापिन के घर का भोजन! गनिका चन्द्रमुखी ने कहा| उसके चेहरे पर गम्भीरता आ गई, शायद उसके जीवन में यह पहली घटना थी|
साधू ने देखा, गनिका ने अपने पाप कर्मों को अनुभव कर लिया है| अब इसको उपदेश देना ठीक है| साधू ने कहा -‘तुम्हारा दिया भोजन स्वीकार होगा| इस जगत में माया का प्रवेश है| माया का प्रभाव जब जीव पर पड़ता है तो वह भगवान को भूल कर काम, क्रोध और मोह में फंस जाता है| जीवन मार्ग से दूर हो जाता है, राम नाम का सिमरन नहीं करता| कुछ ऐसे पुरुष होते हैं जो अपने ही स्वार्थ के लिए किसी दूसरे को कुमार्ग पर भेज देते हैं, ऐसा ही जगत का दस्तूर है|’
ठीक है महाराज! आप सत्य कहते हैं| पुरुषों ने ही मुझे कुमार्ग पर डाला है| मैं पापिन हूं, पर पापिन होने का ज्ञान मुझे आपके ही दर्शन करने पर हुआ है| जब आपने मुझे ‘पुत्री’ कहा| मेरे घर में चाहे जवान आए चाहे बूढ़ा, कभी मुझे बहन या पुत्री किसी ने नहीं कहा| न ही मुझे पता है कि मेरी मां कौन थी और पिता कौन? बस ऐसे ही जीवन व्यतीत होने लगा| वर्षा होते दो दिन हो गए लेकिन वह नहीं आए जो अपने स्वार्थ के लिए आते थे|
इस प्रकार गनिका चन्द्रमुखी को ज्ञान होता गया| उसका शरीर और मन कांपने लगा| उसको ऐसा अनुभव होने लगा जैसे उसमें एक महान परिवर्तन आ रहा हो| एक दर्द और पीड़ा हो रही थी|
मतलब ही तो सब कुछ है, इस समाज की जान है| मुझे और मेरे तोते को मतलब था आसरा लेने का, हम चल कर आ गए| इस मतलब के दो रूप हैं – एक तो है मायावादी तथा दूसरा ईश्वरवादी| अगर जीवन को यह मतलब हो कि उसका जीवन अच्छा बने, तो वह राम नाम का सिमरन करने के लिए साधू-सन्तों और नेक पुरुषों की संगत करे| सेवा का भाव अपने मन में रखे| धर्म और समाज की मर्यादा कायम रखे तो ठीक है| देख पुत्री! अगर तुमने एक पति धारण किया होता, उसकी सेवा करती, उससे ही तन और मन की जरूरत पूरी किया करती तो बच्चे होते| बच्चों और पति की सुख-शांति के लिए पूजा-पाठ करती, सभी तुझे देवी कहते| जीव कर्म से जाना जाता है शरीर से नहीं| इसलिए भला है, जो बीत गया सो बीत गया, आगे से नेक मार्ग पर चलना| भगवान, जिसने जीवन दिया है, वह रोजी-रोटी भी देता है|
गनिका चन्द्रमुखी ने साधू को भोजन कराया| उसने तोते को चूरी खिलाई और उनके चरणों में लग गई| साधू की संगत ने उसके मन को बदल दिया तथा उसको पापों का एहसास करा दिया| इसीलिए तो सद्पुरुष हमेशा कहते हैं कि सदा साधू-सन्त, गुरु पीर, नेक पुरुषों की संगत करनी चाहिए| भाई गुरदास जी ने संगत का बहुत ही बड़ा महत्व बताया है| भाई गुरदास जी फरमाते हैं :-
सण वण वाड़ी खेत इक परउपकार विकार जणावै| खल कढाइ वढाइ सण रसा बंधन होई बनावै| खासा मलमल सिरिसाफ सूत कताइ कपाह वणावै| लजण कजण होइकै साध असाध बिरद बिरदावै| संग दोख निरदोख मोख संग सुभाउ न मान मिटावै| त्रपड़ होवै धरमसाल साध संगति पग धूड़ धुमावै| कुटकुट सण किरतास कर हरिजस लिख पुराण सुणावै| पतित पुनीत करे जन भावै| पथर चित कठोर है चूना होवै अगीं दधा| अग बुझै जल छिड़कीअै चूने अग उठै अति वधा| पाणी पाए विहु न जाइ अगन न फुटे अवगुण बधा| जीभै उते रखिआ छाले पवन संग दुख लधा| पान सुपारी कथ मिल रंग सुरंग संपूरण सधा| साध संगति मिल साध होइ गुरमुख महां असाध समधा| पाप गवाइ मिले पल अधा|
साधू-संगत का ऐसा फल है कि जो गनिका के मन पर प्रभाव डाल गया| वह सारी-सारी रात सत्संग करती रहती|
अगले दिन वर्षा बंद हो गई| आकाश बिल्कुल साफ हो गया| धूप निकली तो साधू ने चलने की तैयारी की| तब गनिका चन्द्रमणी ने प्रार्थना की ‘महाराज! मुझ पर एक उपकार करो, यह तोता दे जाओ| मैं इससे ‘राम नाम’ सुना करुंगी, इसको पढ़ाया करुंगी| अच्छा हो अगर आप भी यहां पर ही रहें|
अच्छा पुत्री! अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो यह लो पिंजरा| इसको संभाल कर रखना, हम अपनी कुटिया में जाते हैं| तुम्हारे घर रहने से लोग तुम्हारी और मेरी दोनों की निंदा करेंगे| लोक निंदा करानी अच्छी नहीं होती| हम चलते हैं|’
यह कह कर साधू चला गया| वह अपना तोता छोड़ गया| वह तोता राम का नाम बोलता| गनिका कहती, बोल गंगा राम ‘राम-राम’|
गनिका चन्द्रमणी को ऐसी लगन लगी कि वह दिन-रात गंगा राम को ‘राम’ नाम का पाठ पढ़ाने लगी| उसका मन पाप कर्मों से हट गया| उसने राम नाम की धुनी गानी शुरू कर दी| धीरे-धीरे उसकी बैठक खाली रहने लगी और ‘राम नाम’ की गूंज आने लगी| उसे तन और मन की होश न रही| वह भूखी ही ‘राम’ नाम जपती रहती|
गनिका चन्द्रमणी की भक्ति देख कर भगवान प्रसन्न हो गया| उसने चन्द्रमणी को अपने पास बुलाने के लिए एक बहाना बना लिया| वह बहाना यह था कि उसने पिंजरे में सांप का रूप धारण करके अपने काल दूत को भेजा| उसने पहले तोते को डंक मारा, उसकी आत्मा को पहले भेज दिया तथा फिर बैठा रहा| गनिका उठी, उसने तोते को बुलाया, बोल गंगा राम ‘राम-राम|’ पर उसको कोई आवाज़ न आई| उसने अपना हाथ पिंजरे में डाल कर तोते को हिलाया तो सांप ने उसको डंस लिया| उसी समय उसकी आत्मा शरीर त्याग गई| आत्मा के लिए बिबान आया, नरसिंघे बजे| शंखों की धुन में वह मृत्यु-लोक से स्वर्ग-लोक में पहुंच गई| इस कथा पर भाई गुरदास जी ने कहा है –
गई बैकुण्ड बिमान चढ़ नाम नाराइण छोत अछोता |
थाऊं निथावें माण मणोता |