Homeभक्त व संतभक्त जयदेव जी (Bhagat Jaidev Ji)

भक्त जयदेव जी (Bhagat Jaidev Ji)

प्रेम भगति जै देऊ करि गीत गोबिंद सहज धुनि गावै |
लीला चलित वखानदा अंतरजामी ठाकुर भावै |

“भक्त जयदेव जी” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio Bhagat Jaidev Ji

अखर इक न आवड़ै पुसतक बंनि संधिआ करि आवै |
गुन निधान घर आई कै भगत रूप लिख लेख बनावै |
अखर पड़ प्रतीत करि हुई विसमाद न अंग समावै |
वेखे जाई उजाड़ विच बिरख इक असचरज सुहावै |
गीत गोबिंद संपुरनो पतु पतु लिखिआ अंत न आवै |
भगत हेत प्रगास करि होई दइआल मिलै गल लावै |
संत अनंत न भेद गनावै |१०|

भाई गुरदास जी ने जै देव भक्त जी का यश इस प्रकार गाया है| यह भक्त बंगाल में हुआ है तथा आपका जन्म गांव केंदल ज़िला बीर भूम (बंगाल) में हुआ| आपके माता-पिता गरीब थे| मां बाम देवी तथा पिता भोज देव थे| वह जाति से ब्राह्मण थे| गरीबी होने के साथ-साथ आपके पास समझदारी थी| इसलिए जै देव जी को उन्होंने पाठशाला में बंगला तथा संस्कृत पढ़ने के लिए भेज दिया| ग्यारहवीं सदी में बंगाल में हिन्दू राज था| संस्कृत साधारणता पढ़ाई जाती थी| एक ब्राह्मण के पुत्र के लिए संस्कृत पढ़ना ज़रूरी था| संस्कृत पढ़ने के साथ आप राग भी सीखते रहे और अपने आप गीत गाने लग जाते थे|

जै देव जी की विद्या पूरी भी नहीं हुई थी की उनके माता-पिता का देहांत हो गया| उनके देहांत का जै देव जी के मन पर बहुत असर हुआ| दुःख को सहन न करते हुए वैराग भरे गीत रच-रच कर गाते रहते| उनके गीतों को सुन कर लोग भी वैराग में आ जाया करते थे|

जै देव विद्या पढ़ते गए और घर की पूंजी या रिश्तेदारों की सहायता मिलती गई| विद्या से मन उचाट न किया| इस तरह उनके दिन बीतते रहे| वह पाठशाला जाते रहे|

जै देव जी का पहला चमत्कार 

सूझवान कहते हैं, चमत्कारी बालकों या भक्तों की भक्ति की निशानियां पहले ही प्रगट हो जाती हैं| उनके जीवन में कोई न कोई ऐसी घटना घटित होती है कि उनके महापुरुष होने का लोगों को आभास हो जाता है| लोग श्रद्धा रखने लग पड़ते हैं|

ऐसी ही अद्भुत चमत्कारी घटना जै देव जी के जीवन में भी घटित हुई, जब आप सभी साधारण बालकों की तरह थे| जवान हो चुके थे पर दुनिया के छल-बल का ज्ञान नहीं था| वह हरेक की बात को सच मां जाते थे तथा आगे कोई किन्तु नहीं करते थे|

भक्त जै देव जी के नगर केंदल का एक निरंजन ब्राह्मण था| वह बहुत मक्कार तथा झूठा आदमी था| हरेक के साथ धोखा करता रहता था| उसने देखा जै देव साधारण बालक है| वह जै देव जी के निकट निकट होता गया| एक दिन बुरा-सा मुंह बना कर कहने लगा-‘जै देव! देखो न तुम्हारे माता-पिता कितने अच्छे थे – भलेमानुष, नेक तथा सत्य बोलने वाले थे| वह जिससे वचन करते, उसे ज़रूर पूरा करते| उन्होंने मुझसे रुपये लिये थे, पर वापिस देने से पहले ही परलोक गमन कर गए| उनके परलोक गमन का तो दुख है, पर अब मैंने सोचा है कि कागज पर हस्ताक्षर कर दो तो मकान दे कर पिता का कर्जा उतर जाए| पिता का कर्जा उतारना एक लायक पुत्र के लिए ठीक है|

निरंजन ने ऐसे मीठे वचन बोले कि जै देव उसकी चालाकी न समझ सका| उसने हस्ताक्षर करने के लिए हां कर दी| उसकी हां देखकर उसी समय निरंजन ने कागज निकाला जो उसने पहले ही छिपा कर रखा हुआ था| वह कागज निकाल कर उसके आगे रख दिया| भक्त जी ने हस्ताक्षर कर दिए|

निरंजन हस्ताक्षर किए देख कर खुश हो गया| कागज पकड़ कर एक हाथ से जै देव को शाबाश दे रहा था कि उसकी लड़की दौड़ती हुई आई तथा उसने रोते हुए कहा-‘पिता जी! घर को आग लग गई, जल गया|’

निरंजन घर की ओर दौड़ा| घर के पास गया तो अग्नि की लपटों से बांस और त्रिण, लकड़ी का घर जल रहा था| आग प्रचंड थी| तो जै देव से लिखवाया कागज आग में गिर पड़ा तथा जल कर राख हो गया| उसे पता न लगा|

सारा गांव इकट्ठा हो गया| निरंजन का घर जल रहा था, आग बुझाने से बुझती नहीं थी| लोग देख-देख कर हैरान खड़े थे कि जै देव जी वहां पहुंच गए| उनके वहां आते ही आग एक दम ठण्डी हो गई, धुंआ भी न रहा| यह चमत्कार देख कर लोग बड़े हैरान हुए| निरंजन को ज्ञान हो गया कि उसके पाप कर्म का फल था जो उसने झूठ कहकर जै देव ब्राह्मण का पक्का घर लेना चाहा| उसकी आत्मा ने उसको कोसा तथा वह जै देव जी के चरणों में गिर पड़ा| रो-रो कर कहने लगा, ‘भक्त…. भगवान भक्त मुझे क्षमा करें! मैंने भूल की| मेरे पाप का फल मुझे बख्शो|’

निरंजन को ज्ञान हो गया कि उसके पाप कर्म का फल था जो उसने झूठ कहकर जै देव ब्राह्मण का पक्का घर लेना चाहा| उसकी आत्मा ने उसको कोसा तथा वह जै देव जी के चरणों में गिर पड़ा| रो-रो कर कहने लगा, ‘भक्त… भगवान भक्त मुझे क्षमा करें! मैंने भूल की| मेरे पाप का फल मुझे बख्शो|’

निरंजन इस प्रकार रोता बिलखता रहा| जै देव जी ने उसको धैर्य दिया| प्यार से केवल इतना कहा-‘भगवान जानता है|’

सारे नगर वासियों को निरंजन के कुकर्म का पता लग गया| वह जै देव जी पर श्रद्धा रखने लगे एवं सेवा करने लगे| निरंजन भी उनका सेवक बन गया|

जैव देव राजकवि 

सदियों से बंगाल रंगीनियों का देश है| राग, नाच, कविता और भक्ति से छलकते दिल बंगाल में बसते हैं| वहां रागी, नृतकों और कवियों का बहुत आदर-सत्कार होता है| राजा भी रचना करते आए हैं| जै देव चढ़ती जवानी में था जब वह सूझवान कवि और गीतकार बन गया| उसके चेहरे पर लाली चमकती थी| सुन्दर तथा सुडौल शरीर था, उस पर उन्होंने भगवा धोती बांध ली| भगवा धोती से वह एक वैरागी साधू लगने लगे| अपनी रचित कविता को गाते फिरने लगे| जिधर वह जाते उधर ही लोगों की भीड़ जाती|

उस समय बंगाल का राजा लक्ष्मण सैन था| उसने जै देव की बहुत उपमा सुनी| उसने हुक्म किया वह (जै देव) जहां-कहीं भी हो उसे लाया जाए| लक्ष्मण सैन के आदमी जै देव को ढूंढ कर उसके दरबार में ले गए| राजा ने जै देव को राज कवि बना लिया तथा उसका बहुत आदर किया| बेशक उसके पास पहले भी विद्वान थे, यह भी उनके साथ रहने लगे पर साधू भेष का त्याग नहीं किया| वह उसी भेष में सुख से रहते रहे| उनकी शान बढ़ गई, कीमती वस्त्र पहनने को मिल गए, पर साधू वृति में परिवर्तन न आया| राज दरबार में रहते हुए आप ने संस्कृत साहित्य में बहुत सारी वृद्धि की और गीत रचे|

तीर्थ यात्रा पर भगवान के दर्शन 

राज दरबार में रहते हुए जै देव वैरागी हो गए| वह पक्षियों की तरह खुले आकाश में उड़ना चाहते थे| राजा के दरबार में कैदियों की तरह रहना उनको अच्छा न लगा| एक दिन चुपचाप ही शहर से बाहर चले गए| ऐसे गए कि फिर न मुड़े| कहां जाना था? यह कुछ पता नहीं| हां वह चलते ही गए| रात भी, दिन भी हृदय पर श्री कृष्ण और राधा का चित्र, आंखों में वही मूर्तियां रहीं| ज़ुबान पर उनका ही नाम था| पशु, पक्षी तथा मनुष्य सारी वनस्पति राधा कृष्ण की स्तुति में ही व्यस्त प्रतीत होती थी| जै देव जी की आत्मा ने आवाज़ दी, चलो जगन्नाथपुरी चलो| वहां तुम्हारा इंतजार है वहां आकाश है| रात को निर्मल आकाश के नीचे हंसते तारों को देखकर कुदरत के गुण गाते| एक दिन वह गीत गाते हुए गर्मी में चलते गए| रास्ता ऊबड़-खाबड़ तथा पहाड़ी था, पानी दूर था| प्यास लगी कोई परवाह न की| वह चलते ही गए| पर्वतों की ऊंची चढ़ाई और गर्मी ने उनको बौखला दिया| वह मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़े| उसी समय भगवान प्रगट हुए, श्री कृष्ण मुरारी| घट-घट की जानने वाले सर्वव्यापी गोपाल और दयाल उसी समय भक्त के पास आए| भगवान ने बालक का रूप धारण कर भक्त को दूध की गड़वी पिलाई| मूर्छित पड़े जै देव जी के मुंह में दूध गया तो उनको होश आई| बचा हुआ दूध भी गड़वी को मुंह लगा कर एक ही घूंट में पी गए| मौत से बचाने वाले बालक की तरफ देखा| वह आठ-दस साल का ग्वालों का बालक प्रतीत होता था| उसके कपड़े तो फटे-पुराने थे, पर मुख चांद जैसा था| जै देव जी को जब अच्छी तरह होश आ गई तो उन्होंने बालक से पूछा, ‘बेटा! तुम किसके पुत्र हो? कहां से आए हो?’

‘जी! उधर देखिए वह झोंपड़ि़यां दिखती हैं वहां का रहने वाला हूं|’ बालक ने उत्तर दिया तथा साथ ही उंगली से ईशारा किया| जै देव जी उधर देखने लग पड़े| उनको कोई झोंपड़ी दिखाई न दी| वह फिर से बालक को पूछने ही लगे थे कि कौन-सी झोंपड़ियों की ओर ईशारा करते हो? उनकी बालक नज़र न आया| वह अदृश्य हो गया| भगवान स्वयं आया था| अपने सच्चे भक्त को दूध पिला कर चले गए| वह दुखियों तथा प्रेमियों का सहारा है| जै देव पुकारने लगे|

‘ओ प्रभु! हे गोकुल रत्न दयालु! आए और दर्शन देकर चले गए?’ उधर झोंपड़ियों का ईशारा करके इधर से चले गए| ‘वाह मेरे कौतुकी प्रीतम मोहन मुरली मनोहर क्या गुण गाऊं तुम्हारे!’ प्रभु! श्री कृष्ण जी को याद करते हुए भक्त आगे जाने की जगह वहीं बैठ कर भगवान के यश में गीत गाने लग पड़ा| पक्षी तथा कुदरत उसके प्रेममयी गीत सुनने लगे|

भक्त जै देव की पद्मावती से शादी 

भक्त जै देव जी पुरी पहुंच गए| उन्होंने किसी मंदिर में डेरा न लगाया बल्कि बाहर मार्ग पर बैठ कर प्रभु के गीत भजन गाने लगे| उनका कंठ सुरीला था| हृदय में प्यार तथा आंखों के आगे भगवान की तस्वीर थी| जो भी उनका भजन सुनता वहीं मुग्ध हो जाता तथा बैठ कर साथ ही दर्शन करता और भजन सुनता| जै देव जी सुन्दर नवयुवक थे| चेहरे पर भक्ति की रंगत थी|

प्रभु की ऐसी कृपा हुई कि उनको हर रोज दोनों समय कोई न कोई भोजन खाने को मिल जाता| माताएं दूध तथा फल दे जाती तथा उनकी श्रद्धा बढ़ती गई| लोग आदर करते गए|

एक दिन अद्भुत ही खेल प्रभु ने रच दिया| पुरी के रहने वाले सुदेव ब्राह्मण को जै देव जी के दर्शनों की ओर भेजा| वह एक माह बाद पुरी में आया था तथा उसने सुना कि एक ब्राह्मण पुत्र अति सुन्दर बंगाल में से आया है तथा भजन गाता है| वह भी सुनने लग पड़ा| ऐसा आनंद आया कि वह बैठा रहा| जब उठा तो घर आया| घर से भोजन तैयार करवा कर लाया तथा खिलाया| वचन विलास करके कहा-‘आप तो उच्च कुल के रत्न हो| परमात्मा ने कृपा करके अपनी भक्ति की ओर लगा लिया|

‘ऐसा क्या है|’ जै देव जी ने उत्तर दिया| वह बहुत कम बोला करते थे| मतलब का वचन करते| भगवान का नाम उसके तन-मन में एकसार हो गया|

सुदेव दो तीन दिन दोनों समय जै देव जी को भोजन खिलाता रहा तथा दर्शन करके चला जाता| वह घर पहुंचा| उसे नवयौवन कन्या पद्मावती दिखाई दी, जो विवाह के योग्य थी| उस रात वह सोचता रहा कि कन्या के हाथ पीले करने हैं| विवाह के योग्य है, क्यों न ऐसे भक्त से विवाह रचा दूं? सुन्दर युवा, प्रभु भक्त! और क्या चाहिए? इस विचार ने रात भर उसे सोने न दिया| मन में यही विचार आता रहा,’ विवाह कर दे जै देव जी के साथ| सुन्दर नवयुवक है| भक्त है…. इससे अच्छा वर और कौन हो सकता है| सुदेव वक्त न गंवाना|’

उसका मन जै देव के साथ जुड़ गया| वह सुबह ही उठकर गया| जै देव जी अपने आसन पर बैठे हुए भजन गा रहे थे| उनको जाकर कहने लगे, ‘भक्त जी! एक विनती है|’

जै देव ने उसकी तरफ देखकर पूछा-‘जी!’

‘मेरी विनती है कि मैं एक संकल्प कर चुका हूं| मेरी कन्या पद्मावती सुन्दर एवं सुशील है| वह अब विवाह के योग्य हो चुकी है| धर्मशास्त्र का कहना है कि यदि कन्या विवाह के योग्य हो जाए तो उसकी शादी करनी ठीक है|

‘आप शादी कर दीजिए, आप तो समझदार हैं| ऐसी बातों का तो हमें ज्ञान नहीं आप लोग अच्छी तरह जानते हो|’ यह भक्त जै देव जी का उत्तर था|

‘पर मैं संकल्प कर चुका हूं कि मेरी कन्या के वर आप ही हो सकते हो| मैंने कन्या की शादी आप से करनी है, वह आपके चरणों की दासी बने|’

सुदेव के यह वचन सुन कर जै देव जी हैरान हुए| उन्होंने सुदेव की तरफ देखा| ‘हे भक्त! मैं एक साधू बन गया हूं| घर नहीं, घाट नहीं| मैं शादी करके आप की कन्या को कैसे सुखी रख सकता हूं? ऐसा सोचना ही ठीक नहीं|’

‘पर मैं संकल्प कर चुका हूं| एक ब्राह्मण का संकल्प भी टल नहीं सकता| आपको मेरी विनती स्वीकार करनी ही पड़ेगी|’ यह कह कर सुदेव घर को चला गया|

अगले दिन सुदेव वापिस आया| उसके साथ उसकी कन्या पद्मावती थी| उस जैसी सुन्दर कन्या सारी पूरी नगरी में नहीं थी| भोजन खिला कर सुदेव ने फिर बात छेड़ दी तथा कन्या को कहा-‘पुत्री! इनके चरणों पर प्रणाम करो|’ कन्या ने ऐसा ही किया| सुदेव ने जबरदस्ती पद्मावती की शादी जै देव के साथ कर दी| प्रभु की इस इच्छा पर जै देव जी स्वयं हैरान थे| ‘प्रभु की कैसी लीला है|’ कह कर जै देव जी भजन गाने लग पड़े|

जै देव जी का अपने गांव मुड़ना

भक्त जै देव जी भगवान की लीला पर हैरान थे| पहले घर से भेजा तीर्थ की ओर तथा फिर तीर्थ पर गृहस्थी बना दिया| सुन्दर पद्मावती बख्श दी| जिस ब्राह्मण कन्या से देवता, पुजारी तथा धनवान विवाह करने की इच्छा रखते थे, वह जै देव जी को बिना कुछ खर्च किए दान हो गई| सुदेव बड़ा प्रसन्न हुआ| वह भक्त जी को घर ले गया और कुछ दिनों पश्चात भक्त जी के मन में आया कि वह अपने नगर जा बसें|

भक्त जी चल पड़े| मंजिल-मंजिल तय करते हुए अपने गांव पहुंचे| उनके गांव जाने के बाद गांव वासियों को उनके दर्शन हुए तो वह प्रसन्न हुए| हैरानी इस बात की हुई कि पद्मावती मिल गई| उनके पिता के घर में फिर चहल-पहल हो गई|

भक्त जी का घर निरंजन ब्राह्मण के पास था| उसने उसी समय कहा कि मैं खाली कर देता हूं| आप रहो मैं झोंपड़ी डाल कर रहूंगा| आप तो ब्राह्मण रूप हो|

‘नहीं पंडित जी!’ भक्त जी ने निरंजन को कहा, ‘इतने बड़े मकान में क्या मैं अकेला रहूंगा? एक तरफ आप रहो और एक तरफ मैं रहता हूं| रौनक बनी रही|’

निरंजन पहले वाला निरंजन नहीं रहा था| उसका मन साफ हो चुका था| वह चोरी, धोखा, फरेब छोड़ कर भगवान का भजन करता था| किसी को बुरा नहीं कहता था| गांव वाले भी उसको अच्छा समझते थे| वह कई बार कहा करता-‘मेरे मन में लालच आया| पक्का मकान लेने के लिए भक्त जै देव जी के आगे मैंने झूठ बोला| भगवान सुन रहा था| उसने उसी समय मेरे घर को आग लगा दी और घर जला दिया| नेक पुरुष के साथ कभी धोखा न करो, भगवान सजा देता है, नुक्सान होता है|’

जै देव जी गांव में रहने लगे| उनकी उपजीविका की चिन्ता भगवान को थी| पद्मावती अपने पति को देवता समझ कर उनकी सेवा करने लगी तथा जो मिलता वह खुशी से खा लेती| वह भी प्रभु का नाम सिमरन करने लगी| जो भी कोई दर्शन करने आता, वही कुछ न कुछ भक्त जी को भेंट कर जाता| भक्त जी तो गीत गोबिंद गाते रहते|


गीत गोबिंद की रचना

भक्त जै देव जी संस्कृत के विद्वान थे| वेद मंत्र तथा उपनिषदों के मंत्र, महाभारत और महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण के श्लोक इतने याद थे कि चाहे वह महीना गाते रहते खत्म न होते| पर उन्होंने स्वयं संस्कृत में गीत रचे, जो संस्कृत साहित्य की महान रचना है|

भक्त जै देव जी का ग्रंथ ‘गीत गोबिंद’ कृष्ण भक्ति का महान ग्रंथ है तथा इसकी रचना एक महीना या एक साल में नहीं हुई अपितु कई सालों में हुई है| जैव देव जी अपने नगर में विराज कर गीत गोबिंद की रचना करते रहे| पर रचना का आरंभ जगन्नाथ पुरी में ही हुआ था| उसके बारे में कहा जाता है कि एक दिन भक्त जी का भगवान श्री कृष्ण जी कि याद में मन लगा हुआ था, मन तो वृंदावन की कुन्ज गलियों में घूम रहा था| अचानक उनकी आंखों में आगे एक झांकी स्वयंमेव आ गई| एक अनोखी झांकी जिसको भक्त जी कभी न भूले|

भक्त जी नदी किनारे एक बड़े वृक्ष के साथ सट कर खड़े थे| उनकी आंखों के सामने श्री कृष्ण जी दूर खड़े बांसुरी बजा रहे थे| दूर से राधा अपनी सखियों के साथ नाचती हुई आई| वह गीत गाती तथा नाचती श्री कृष्ण जी को मिली तो उस कौतुक को देखते ही जै देव जी के मुख से एक सलोक अकस्मात ही निकल गया| वह सलोक ‘गीत गोबिंद’ का आरम्भिक चरण बना तथा रचना शुरू हुई|

भक्त जै देव जी का कीर्तन सुनने तथा दर्शन करने आए लोग हर रोज़ कुछ भेंट कर जाते थे| उससे भक्त जी के घर का निर्वाह चलता था| अन्न की कमी नहीं थी| आपकी धर्मपत्नी पद्मावती भी बहुत नेक तथा मेहनती स्वभाव की थी| वह पति सेवा करती हुई उसी में सुख संतोष से रहती| जो कुछ भी उसको खाने-पीने के लिए मिलता उसी में खुश रहती|

भक्त जै देव जी सुबह ही बाहर चले जाते| उनके नगर के पास ही निर्मल जल की नदी बहती थी| उसके किनारे बड़े ऊंचे वृक्ष थे| उनके नीचे बैठ कर जै देव जी गीत गोबिंद का उच्चारण करते रहते| भोजन के समय पद्मावती भोजन लेकर आ जाती तथा भोजन खिला कर अपने घर वापिस आ जाती|

एक दिन पद्मावती भोजन लेकर आई| आप जब श्री कृष्ण जी की स्तुति में गीत उच्चारण कर रहे थे तो एक छन्द की रचना की| तीन चरण पर चौथा न सूझा| उधर से पद्मावती ने आकर कहा-

‘स्वामी जी भोजन करने के लिए स्नान कर आओ|’

‘पद्मो! भक्त जी बोले, छन्द की रचना की है पर चौथा चरण पूरा नहीं होता| उसको पूरा करके खाता हूं|’

पद्मावती-हे स्वामी जी! आप स्नान करो| भोजन कीजिए, फिर वृति लगा कर बैठोगे टी चरण ज़रूर पूरा हो जाएगा| भगवान की कुछ ऐसी इच्छा होगी, जिस कारण नहीं सूझता|

भक्त जै देव जी-अच्छा पद्मे! आपका कहना भी मान लेते हैं| मेरे भगवान की शायद ऐसी इच्छा हो|

वह आसन से उठ बैठे तथा नदी की तरफ चले गए| पर उस समय पद्मावती बड़ी हैरान हुई, जब जै देव जी रास्ते से फिर मुड़ आए और कहते हैं-‘पद्मो! लाओ गीत-गोबिंद! चरण पूरा करें|’

‘आप रास्ते से मुड़ आए!’ ग्रंथ पकड़ाते हुए पद्मावती ने कहा|

बिना उत्तर दिये चरण लिखने लग पड़े तथा पूरा कर दिया|

जब चरण पूरा हो गया तो उन्होंने पद्मावती की तरफ देख कर कहा – ‘हे पद्मे! लाओ पहले भोजन कर लें, फिर स्नान कर लेंगे| आज कुछ ऐसी इच्छा है|

पद्मावती ने पत्तल पर भोजन परोस दिया| जै देव जी ने बड़े प्रेम से भोजन खाया| हाथ धोकर ज़रा दूर हुए तो पद्मावती उन जूठे पत्तलों पर भोजन करने लगी| वह पति के जूठे पत्तल पर भोजन करती थी| उसने अभी निवाला मुंह में नहीं डाला था कि जै देव जी आए तथा देख कर कहने लगे –

‘हे पद्मो! क्या बात है आज भोजन पहले कर लिया? मेरा इंतजार नहीं किया, मैं स्नान करके आ रहा हूं| आज कुछ देव हो गई| भगवान की यही इच्छा है|’

पद्मावती ने अभी निवाला होठों को नहीं लगाया था| उसके हाथ से निवाला गिर पड़ा तथा हैरानी से देखती हुई कांपते होंठों से बोली-‘यदि आप अभी नहीं आए थे तो आपका रूप धारण करके कौन आया था, आपके छन्द का चौथा चरण पूरा हुआ, भोजन खाया| कहीं सीता की तरह मेरे साथ धोखा तो नहीं होने लगा था?’

इसके बाद पद्मावती ने सारी वार्ता सुनाई| भक्त जी ने ग्रंथ का लिखा हिस्सा लेकर उठाया| जब देखा तो छन्द बिल्कुल पूर्ण हुआ-

सथल कमल गंजनं मम रिदय रंजनं जनि तर तिरंग पर भागमू |भन सम्रिन वानि करवानि चरन द्वय सरस लस दलकत करागमू | समर गरल खंडनं सम शिरसि खंडनं देह मो पट पदव मुराटरमू |

सारी वार्ता सुन कर तथा छन्द पूरा हुआ देख कर भक्त जै देव जी जान गए कि भगवान श्री कृष्ण जी ने उनकी सहायता की है| पद्मा से भोजन ग्रहण किया है| उन्होंने भगवान का शीत प्रसाद लिया और कपाट खुल गए| प्रसन्न होकर उसी दिन घर आ गए|


‘गीत गोबिंद’ पुरी के मंदिर में भेजना 

भगवान श्री कृष्ण जी के दर्शन देने के बाद शीघ्र ही ‘गीत-गोबिंद’ का ग्रंथ सम्पूर्ण हो गया| जब ग्रंथ सम्पूर्ण हुआ तो उसकी एक ओर प्रतिलिपि (नकल) तैयार की| सुन्दर कपड़े में बांध कर जै देव जी पद्मावती सहित पुरी के मंदिर में पहुंचे तथा एक गीत गाया| सारे गीत गा कर वह ग्रंथ भगवान के चरणों में रख दिया| उनके गीत लोगों को इतने मधुर लगे कि हर कोई याद करके गाने लगा| भक्त जै देव जी के नाम की बहुत चर्चा हुई|

जगन्नाथ पुरी का राजा ब्राह्मण था| वह स्वयं को कवि तथा महां विद्वान मानता था| उसने जब ‘गीत-गोबिंद’ की शोभा सुनी तो उसके हृदय में ईर्ष्या की आग जल उठी| उसने मन ही मन फैसला कर लिया कि वह ‘गीत-गोबिंद’ जैसा ग्रंथ लिखेगा तथा अपने ग्रंथ का प्रचार करवाएगा, क्योंकि उसके पास माया बहुत थी| माया के सहारे पर मुर्ख भी पंडित समझा जाता है| जगत में हर जगह माया का ही प्रताप है| ‘कउन बड़ा माया वडिआई’ वाली बात है जगत पर|

उस राजा को माया का अभिमान हो गया तथा ‘गीत-गोबिंद’ ग्रंथ तैयार किया| ग्रंथ तैयार होने पर ब्राह्मणों को बुला कर कहने लगा- ‘देखो इस गीत ग्रन्थ की रचना मैंने की है| इसके गीतों का प्रचार करो| बहुत सारा धन दान करूंगा|’ पर ब्राह्मण यह पाप नहीं करना चाहते थे कि वास्तविक गीत ग्रंथ की जगह नकली का प्रचार करें| उन्होंने राजा को उत्तर दिया-‘हे राजन! यह नहीं हो सकता कि हम स्वयं ही आपके ग्रन्थ का प्रचार करें| यह तो हो सकता है कि दोनों ग्रंथ श्री कृष्ण जी की हजूरी में रख देते हैं| वह जिस ग्रंथ को स्वीकार करें उसी का प्रचार होगा| पंडितों की इस सलाह को राजा भी मां गया| चलो इसी तरह ही सही| सुबह ही दोनों ग्रंथ मंदिर में चढ़ाए जाएं, अपने आप ही पता लग जायेगा कि किस ग्रंथ को भगवान चाहता है|

सारे शहर में यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई कि राजा और जै देव जी के गीत गोबिंद ग्रंथों का मुकाबला होगा| लोग यह सुन कर भगवान का चमत्कार देखने के लिए बढ़-चढ़ कर पहुंचे| राजा वजीरों सहित अहंकार में मस्त हो गया| उसे यह अभिमान था कि उसका गीत गोबिंद ग्रंथ अच्छा है| दोनों ग्रंथ श्री पुरुषोत्तम जी की मूर्ति के आगे रख दिए गए|

सारे लोग मंदिर से बाहर आ गए| पुजारी पंडित ने पूर्ति के आगे प्रार्थना की-‘हे भगवान! यह दो ग्रंथ आपके चरणों में रखे जाते हैं| इन में से जिस ग्रन्थ को आप स्वीकार करते हो उसको पास रख लो तथा दूसरे को मंदिर में से बाहर निकाल दें| हे प्रभु! यह फैसला आप ही कर सकते हो|’ ऐसी प्रार्थना करके मुख्य पुजारी भी मंदिर से बाहर आ गया| अंदर सिर्फ ग्रंथ तथा भगवान की मूर्ति रही| मंदिर के पुजारी, राजा तथा शहर के साधारण लोग बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे कि भगवान जी किसके हक में फैसला करते हैं तथा किस को मान देते हैं| भगवान की लीला भगवान ही जाने, मनुष्य क्या जान सकता है? बाहर खड़े लोगों को ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे मंदिर में कोई पुरुष घूम रहा हो तथा चीज़ों का उल्ट-पुल्ट कर रहा था| उस हिलजुल के कुछ समय बाद ही एक ग्रंथ पटाक् करके मंदिर के द्वार से बाहर आने से लोगों ने खुशी में भगवान पुरुषोत्तम की जै जै कार की| मुख्य पुजारी ने आगे होकर बाहर गिरा हुआ ग्रंथ उठा कर देखा| उसने पुकारा, भगवान के भक्तो! सुन लो! भगवान ने राजा के ग्रंथ गीत गोबिंद को बाहर फैंक दिया है तथा जै देव जी का ग्रंथ स्वीकार है| राजा के ग्रंथ को स्वीकार नहीं किया| अब जै देव जी के ग्रंथ के गीत गाए जाएंगे| लोग खुश हो गए पर राजा बड़ा शर्मिंदा हुआ|

उसे धरती स्थान नहीं देती थी, लोग वहीं उसे शर्मिंदा करने लग पड़े| उसने अपना ग्रंथ उठा लिया| वजीरों, पंडितों तथा अन्य जानने वालों से आंख बचा कर समुन्द्र की ओर चल पड़ा| उसने फैसला किया कि वह प्राण त्याग देगा| मरने का विचार कर के वह समुन्द्र के किनारे पहुंचा| समुन्द्र में छलांग लगाने लगा तो भगवान की ओर से वचन हुआ-‘हे राजन! आत्महत्या करके दूसरा पाप न करो, पहला पाप तुमने ईर्ष्या करके किया है| तुम्हारे ग्रंथ को इसीलिए स्वीकार नहीं किया गया क्योंकि लिखते समय तुम्हारी आत्मा में श्रद्धा नहीं थी| ईर्ष्या की आग से जलते मन के साथ आप ने इसकी रचना की है| अहंकार को त्याग कर, मूर्खता छोड़ दो| जाओ कुछ सलोक जै देव जी के ग्रंथ में शामिल कर दो, स्वीकार हो जाएंगे| तुम्हारा नाम अमर हो जाएगा| यह समुचा ग्रंथ समुन्द्र को भेट कर दो|’ यह वचन सुन कर राजा के मन में कुछ शांति आई| उसने अपना ग्रंथ समुन्द्र में फैंक दिया तथा समुन्द्र के किनारे से भाग कर सीधा मंदिर में आ गया| मंदिर की मूर्ति के आगे डण्डवत हो कर भगवान से क्षमा मांगी| आगे से ईर्ष्या न करने की सौगन्ध उठाई| साथ ही यह प्रण किया कि जै देव जी के ग्रंथ गीत-गोबिंद में से वह यह गीत ज़रूर मंदिर में आकर पढ़ा करेगा| राजा इसी तरह ही करने लगा| इस बात ने जै देव जी की शोभा और बढ़ा दी| राजा ने जै देव जी को ढेर सारा धन दिया|


भक्त जी का लुटना

जब जगन्नाथ पुरी से जै देव जी चले तो राजा ने उनको बहुत सारा धन दिया तथा बड़े आदर से विदा किया| लोग भी दूर तक छोड़ने आए तथा प्रभु के गुण गाते रहे|

भक्त जी पद्मावती के साथ जब जंगल में से गुजर रहे थे तो उनको रास्ते में खतरनाक डाकू मिल गए| उन डाकुओं ने चाहे यह देख लिया की एक ब्राह्मण आ रहा है, पर पद्मावती के सौंदर्य तथा रुपयों की पोटली ने डाकुओं का मन बेईमान कर दिया| उनमें से एक ने कहा, ‘हे पंडित! जो कुछ तुम्हारे पास है, वह हमारे हवाले कर दो| अगर टाल-मटोल की तो तुम्हारी खैर नहीं|’

मैं एक ब्राह्मण हूं| भगवान पुरुषोत्तम के दर्शनों से आ रहा हूं| मेरे पास यह मोहरें तथा रुपये हैं ले लो| यह धन शायद आपकी आवश्यकता पूरी कर देगा|

यह कह कर जै देव जी ने सारा धन धरती पर ढेक कर दिया, जब आगे चलने लगे तो डाकुओं ने पद्मावती को बांहों से पकड़ लिया और कहा, ‘यह भी धन है यह नहीं जाएगी|’ इस पर जै देव जी ने मिन्नत की पर मूर्ख डाकुओं ने एक न सुनी तथा जै देव जी को उठा कर कुएं में फैंक दिया| दुष्ट लुटेरे पद्मावती को साथ लेकर भाग गए तथा दौलत भी ले गए| भगवान ने अनोखा ही कौतुक रचा दिया| बुरे पुरुष की दौलत ने भक्त तथा उसकी धर्म पत्नी को दुखों, कष्टों में डाल कर शायद परीक्षा लेनी चाही|

जैसे पूरन भक्त को कुएं में उसके पिता ने गिरवा दिया था, उसी तरह मूर्ख डाकुओं ने महान विद्वान तथा ब्रह्म स्वरूप भक्त को कुएं में फैंक दिया| कुआं सूना तथा कम पानी वाला था| भक्त न डूबा तथा ‘राधे श्याम! राधे श्याम!’ ऊंचे-ऊंचे रटता रहा|

जब भक्त इस तरह अपने भगवान को याद कर रहा था, तब एक नेक राजा लक्ष्मण सैन उधर आ निकला| उसने आवाज़ सुनी तो रुक गया| उसके सेवकों ने भी सुना, आवाज़ आ रही थी, ‘राधे श्याम! हरे राम राधे श्याम! वह भी लय में मस्ती के साथ गाने की|

‘हे बोलने वाले! यह बताओ तुम कौन हो? राजा ने आगे होकर आवाज़ दी|

‘मेरा नाम जै देव है| मैं पुरुष हूं| मुझे भगवान के आदमी कुएं में फैंक गए हैं| डरने वाली बात नहीं, मैं प्रभु का सुमिरन कर रहा हूं|’ आगे से जवाब आया|

उसी समय राजा ने रस्सा गिरवाया तथा भक्त को कहा कि वह रस्से की गोल गांठ बना कर पैर फंसा ले तथा साथ ही रस्से को पकड़ ले| उसको ऊपर उठाया जाएगा| भक्त ने कहा ‘डोल के बिना नहीं आ सकता| मेरी बाजुओं को चोटें लगी हैं|’

राजा ने डोल कुएं में फैंका तो भक्त जी को बाहर निकाला, जब बाहर आए तो उन्होंने सारी आपबीती सुनाई| राजा सुन कर बड़ा हैरान हुआ तथा भक्त की टूटी हुई बाजुएं देख कर उसको बहुत दुःख हुआ| वह सोचता रहा कि भक्त जी कैसे लिखेंगे?

राजा लक्ष्मण सैन ने भक्त जै देव को साथ लिया तथा अपनी राजधानी ले आया| भक्त जी को पद्मावती की बहुत चिंता थी, पर विवेक यही था कि सब का रक्षक भगवान है| जो प्रभु की इच्छा है वही हो जाता है|

राजा ने पुण्य दान करने के साथ एक महा यज्ञ किया| उस यज्ञ का यह फल मिला कि जै देव जी की बाजुएं ठीक हो गईं| वह हरि यश करने लगा| दूसरी तरफ यज्ञ में आए साधू भेष में लुटेरे भी पकड़े गए तथा पद्मावती का पता लगा वह अपने गांव केंदल थी|

उसे भी राजा के पास बुला लिया गया| पद्मावती अपने पति को मिली|

भक्त जै देव जी का स्वर्गवास 

राजा के पास भक्त जी लम्बे समय तक रहे तथा हरि नाम का कीर्तन किया करते| आपका बहुत यश होता था, कथा होती भक्त जी जो वचन करते थे, पूरे हो जाते, इस तरह काल बीत गया|

एक दिन जै देव जी ने राजा को कहा, ‘हे महीष! मेरी तीव्र इच्छा है कि अपने नगर की तरफ जाऊं| अब आज्ञा दीजिए| आप प्रभु का नाम सुमिरन करते रहो, किसी तरह की कमी नहीं आएगी| भगवान आपकी सहायता करेगा|

चाहे राजा की इच्छा नहीं थी कि भक्त जी उनसे कहीं दूर जाएं| वह चाहते थे कि उनके पास रहें| राजा के मन को शांति प्राप्त हो गई थी| फिर भी भक्त जी की इच्छा के विरुद्ध न जा सके| बहुत सारा धन देकर राजा ने आदर सहित विदा किया तथा साथ ही अपने आदमी भेजे जो रास्ते में रक्षा करते गए तथा भक्त को केंदल पहुंचा गए|

अपने नगर में आकर भक्त जी भगवान का यश करते रहे| गंगा उनके घर से दूर बहती थी, पर भक्त जी की ऐसी महिमा हुई कि एक बाढ़ से गंगा निकट आ गई|

केंदल नगर में रहते हुए भक्त जी आयु बहुत बढ़ जाने से वृद्ध हो गए| उनका अंतिम समय निकट आ गया तथा एक दिन भजन करते हुए ही ज्योति जोत समा गए| उनका ज्योति जोत समाना सुन कर पद्मावती भी परलोक गमन कर गई तथा दोनों की आत्माएं स्वर्गपुरी को चली गईं| जै जै कार होती रही|

उनकी समाधि उनके नगर में है, गंगा किनारे तथा गंगा का नाम ‘जै दई गंगा’ है| प्रत्येक माघी की संग्रांद को मिला लगता है तथा लोग स्नान करके मोक्ष प्राप्त करते जा रहे हैं| ‘राधे श्याम’ तथा गीत-गोबिंद की धुनें गाई जाती हैं| धन्य-धन्य भक्त जै देव जी!

FOLLOW US ON: