जीवन की महिमा – कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित
जीवन की महिमा: संत कबीर दास जी के दोहे व व्याख्या
जो मरि जानै कोय |
मरना पहिले जो मरै,
अजय अमर सो होय ||
व्याख्या: जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो| मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर – अमर हो जाता है| शरीर रहते रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना – विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं|
मरि के हुआ भूत |
मूये पीछे उठि लगा,
ऐसा मेरा पूत ||
व्याख्या: भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ| मरने के पश्यात भी उठकर मेरे पीछे लग पड़ा, ऐसा यह मेरा मन बालक की तरह है|
जो अपने घर जाय |
रोइये साकट बपुरे,
हाटों हाट बिकाय ||
व्याख्या: जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे सन्त भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त – अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी के बाज़ार मैं बिकने जा रहे हैं|
लिया पलीता हाथ |
जो घर जारो आपना,
चलो हमारे साथ ||
व्याख्या: संसार – शरीर में जो मैं – मेरापन की अहंता – ममता हो रही है – ज्ञान की आग बत्ती हाथ में लेकर इस घर को जला डालो| अपने अहंकार – घर को जला डालता है|
गुरुमुख होय निहाल |
काम क्रोध व्यापै नहीं,
कबूँ न ग्रासै काल ||
व्याख्या: गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है| उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता|
मिरतक हुआ न जाय |
काया माया मन तजै,
चौड़े रहा बजाय ||
व्याख्या: जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता| अतएव शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रुपी मैदान में विराजना चहिये|
मति माने विश्वाश |
साधु तहाँ लौं भय करे,
जौ लौं पिंजर साँस ||
व्याख्या: मन को मृतक (शांत) देखकर यह विश्वास न करो कि वह अब दोखा नहीं देगा| असावधान होने पर वह पुनः चंचल हों सकता है इसलिए विवेकी सन्त मन में तब तक भय रखते हैं, जब तक शरीर में श्वास चलता है|
मति धरो विश्वास |
कबहुँ जागै भूत है,
करे पिड़का नाश ||
व्याख्या: ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो| अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा|
जो जग मानै हार |
घर में झजरा होत है,
सो घर डारो जार ||
व्याख्या: आज भी तेरा संकट मिट सकता है यदि संसार से हार मानकर निरभिमानी हो जाये| तुम्हारे अंधकाररुपी घर में को काम, क्रोधादि का झगड़ा हो रहा है, उसे ज्ञानाग्नि से जला डालो|
त्यागै फटकि असार |
कहैं कबीर गुरु नाम ले,
परसै नहीँ विकार ||
व्याख्या: सत्संग सूप के ही तुल्ये है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है| तुम भी गुरु ज्ञान लो, बुराइयों छुओ तक नहीं|