गुरु महिमा – कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित
गुरु महिमा: संत कबीर दास जी के दोहे व व्याख्या
सीस दीजये दान |
बहुतक भोंदू बहि गये,
सखि जीव अभिमान ||
व्याख्या: अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद – पोत में न लगे |
गुरु की आज्ञा जाय |
कहैं कबीर सो संत हैं,
आवागमन नशाय ||
व्याख्या: व्हेवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना – जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म – मरण से पार होने के लिए साधना करता है |
जानत हैं सब सन्त |
वह लोहा कंचन करे,
ये करि लये महन्त ||
व्याख्या: गुरु में और पारस – पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं | पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है |
गुरु ज्ञान जल होय |
जनम – जनम का मोरचा,
पल में डारे धोया ||
व्याख्या: कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है | जन्म – जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं |
गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट |
अन्तर हाथ सहार दै,
बाहर बाहै चोट ||
व्याख्या: गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार – मारकर और गढ़ – गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं |
याचक शीष समान |
तीन लोक की सम्पदा,
सो गुरु दीन्ही दान ||
व्याख्या: गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं | त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान – दान गुरु ने दे दिया |
शीष समुन्दर तीर |
एक पलक बिखरे नहीं,
जो गुण होय शारीर ||
व्याख्या: यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा |
चलिये आज्ञा माहिं |
कहैं कबीर ता दास को,
तीन लोकों भय नाहिं ||
व्याख्या: गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य – सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है |
जेहि तत निबहै संत |
प्रेम बिना ढिग दूर है,
प्रेम निकट गुरु कंत ||
व्याख्या: जैसे बने वैसे गुरु – सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो | निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु – स्वामी पास ही हैं |
सेवक नैन चकोर |
आठ पहर निरखत रहे,
गुरु मूरति की ओर ||
व्याख्या: गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं | अतः आठो पहर गुरु – मूरति की ओर ही देखते रहो |
दुतिया भेद कुछ नाहिं|
उन्हीं कूं परनाम करि,
सकल तिमिर मिटि जाहिं ||
व्याख्या: गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो | उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा|
दया भक्ति विश्वास |
गुरु सेवा ते पाइए,
सद् गुरु चरण निवास ||
व्याख्या: ज्ञान, सन्त – समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य – स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास – ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं |
लिखनी सब बनराय |
सात समुद्र की मसि करूँ,
गुरु गुण लिखा न जाय ||
व्याख्या: सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते |
गुरु बिना मिलै न ज्ञान |
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है,
सत्त शब्द परमान ||
व्याख्या: बड़े – बड़े विद्व्न शास्त्रों को पढ – गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता | ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती |
नन्हा है कर पीव|
तजि अहं गुरु चरण गहु,
जमसों बाचै जीव ||
व्याख्या: कबीर साहेब कहते हैं कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु – वचनरूपी दूध को पियो | इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा |
जेहि निबहे गुरु प्रेम |
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन,
कितहुं कुशल नहिं क्षेम ||
व्याख्या: अपने मन – इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जये | कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशलक्षेम नहीं है |
शीष बढ़ी चित प्रीत |
ते कहिये गुरु सनमुखां,
कबहूँ न दीजै पीठ ||
व्याख्या: शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं | अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो |
सबहिं करै प्रतिपाल |
अपनी ओर निबाहिये,
सिख सुत गहि निज चाल ||
व्याख्या: मात – पिता निर्बुधि – बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं | पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं |
अंजन ज्ञान सुदये |
बलिहारी वे गुरु की,
हँस उबारि जु लेय ||
व्याख्या: ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं | उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं |
गाँठे वाखे मोय |
जल सो अरक्षा परस नहिं,
क्यों कर ऊजल होय ||
व्याख्या: साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है |जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्वल हो | भाव – ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो |
रहै रंक की ओट |
कहै कबीर क्यों उबरै,
काल कठिन की चोट ||
व्याख्या: कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा | इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकर, और कल्पित देवी – देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा |
सात दीप नौ खण्ड |
तीन लोक न पाइये,
अरु इकइस ब्रह्मणड ||
व्याख्या: सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे |
जो अस भेद बताय |
धन्य शिष धन भाग तिहि,
जो ऐसी सुधि पाय ||
व्याख्या: सद् गुरु सत्ये – भाव का भेद बताने वाला है | वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है |
ज्ञान उजाला होय |
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि,
रहै निराला होय ||
व्याख्या: सद् गुरु मिल गये – यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये |
मन से संग शरीर |
अब देवे को क्या रहा,
यो कथि कहहिं कबीर ||
व्याख्या: यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया | अब देने को रहा ही क्या है |
सुर नर मुनि अरु देव |
कहैं कबीर सुन साधवा,
करू सतगुरु की सेवा ||
व्याख्या: जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर – नर मुनि और देवता सब थक गये | ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो |
साधु संग गुरु ज्ञान |
तामें निपट अनूप है,
सतगुरु लगा कान ||
व्याख्या: दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है | उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो |
मोहिं अंदेशा होय |
लोभ नदी की धार में,
कहा पड़ा नर सोय ||
व्याख्या: कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं | मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी – धारा में ऐ मनुष्यों – तुम कहां पड़े सोते हो |
योग यज्ञ तप लाय |
बिन सतगुरु पावै नहीं,
कोटिन करे उपाय ||
व्याख्या: कितने लोग शास्त्रों को पढ – गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे |
जीव काज को चाहहु |
मेटो भव के अंक,
आवा गवन निवारहु ||
व्याख्या: ऐ संतों – यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म – मरण से रहित हो जाओ |
जो माने परतीत |
करम भरम सब त्यागि के,
चलै सो भव जलजीत ||
व्याख्या: यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है |
चेला खरा निरंध |
अन्धे को अन्धा मिला,
पड़ा काल के फन्द ||
व्याख्या: जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा | अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये |
लिया नहीं गौन |
अंधे को अंधा मिला,
राह बतावे कौन ||
व्याख्या: विवेकी गुरु से जान – बुझ – समझकर परमार्थ – पथ पर नहीं चला | अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन |