आचरण की महिमा – कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित
आचरण की महिमा: संत कबीर दास जी के दोहे व व्याख्या
बहुरि कहावै हंस |
ते मुक्ता कैसे चुगे,
पड़े काल के फंस ||
व्याख्या: जो बगुले के आचरण में चलकर, पुनः हंस कहलाते हैं वे ज्ञान – मोती कैसे चुगेगे ? वे तो कल्पना काल में पड़े हैं |
चलै भेड़ की चाल |
बोली बोले सियार की,
कुत्ता खावै फाल ||
व्याख्या: सिंह का वेष पहनकर, जो भेड़ की चाल चलता तथा सियार की बोली बोलता है, उसे कुत्ता जरूर फाड़ खायेगा |
राखै शील विचार |
गुरुमुख बानी साधु संग,
मन वच सेवा सार ||
व्याख्या: जो ग्रहस्थ – मनुष्य गृहस्थी धर्म – युक्त रहता, शील विचार रखता, गुरुमुख वाणियों का विवेक करता, साधु का संग करता और मन, वचन, कर्म से सेवा करता है उसी को जीवन में लाभ मिलता है |
ज्ञान गली दे पाँव |
क्या रमता क्या बैठता,
क्या ग्रह कांदला छाँव ||
व्याख्या: निर्णय शब्द का विचार करे, ज्ञान मार्ग में पांव रखकर सत्पथ में चले, फिर चाहे रमता रहे, चाहे बैठा रहे, चाहे आश्रम में रहे, चाहे गिरि – कन्दरा में रहे और चाहे पेड की छाया में रहे – उसका कल्याण है |
सहै कसौटी दूख |
कहैं कबीर ता दुःख पर वारों,
कोटिक सूख ||
व्याख्या: विवेक – वैराग्य – सम्पन्न सतगुरु के समुख रहकर जो उनकी कसौटी और सेवा करने तथा आज्ञा – पालन करने का कष्ट सहता है, उस कष्ट पर करोडों सुख न्योछावर हैं |
सिर के मूड़े कोट |
मन के मूड़े देखि करि,
ता संग लिजै ओट ||
व्याख्या: करोडों – करोडों हैं कविता करने वाले, और करोडों है सिर मुड़ाकर घूमने वाले वेषधारी, परन्तु ऐ जिज्ञासु! जिसने अपने मन को मूंड लिया हो, ऐसा विवेकी सतगुरु देखकर तू उसकी शरण ले |
हँसी खेल हराम |
मद माया और इस्तरी,
नहि सन्त के काम ||
व्याख्या: बोली – ठोली, मस्खरी, हँसी, खेल, मद, माया एवं स्त्री संगत – ये संतों को त्यागने योग्य हैं |
बुझि लीजिये ज्ञान |
बिना कसौटी होत नहिं,
कंचन की पहिचान ||
व्याख्या: केवल उत्तम साधु वेष देखकर मत भूल जाओ, उनसे ज्ञान की बातें पूछो! बिना कसौटी के सोने की पहचान नहीं होती |
गिरही चित्त उदार |
दोऊ चूकि खाली पड़े,
ताके वार न पार ||
व्याख्या: साधु में विरक्तता और ग्रस्थ में उदार्तापूर्वक सेवा उत्तम है | यदि दोनों अपने – अपने गुणों से चूक गये, तो वे छुछे रह जाते हैं, फिर दोनों का उद्धार नहीं होता |
नातरू करू बैराग |
बैरागी बन्धन करै,
ताका बड़ा अभागा ||
व्याख्या: साधु घर में रहे तो गुरु की भक्ति करनी चहिये, अन्येथा घर त्याग कर वेराग्ये करना चहिये | यदि विरक्त पुनः बंधनों का काम करे, तो उसका महान सुर्भाग्य है |
विरही के बैराग |
गिरही दासातन करे,
बैरागी अनुराग ||
व्याख्या: धारा तो दोनों अच्छी हैं, क्या ग्रास्थी क्या वैराग्याश्रम! ग्रस्थ सन्त को गुरु की सेवकाई करनी चहिये और विरक्त को वैराग्यनिष्ट होना चहिये |