विठ्ठल का दर्शन देना – श्री साईं कथा व लीला
साईं बाबा भगवद् भजन व ईश्वर चिंतन में विशेष रूप से रुचि रखते थे| बाबा सदैव अपने आत्मस्वरूप में मग्न रहा करते थे| बाबा के होठों पर ‘अल्लाह मालिक’ का उच्चारण सदैव रहता था| बाबा द्वारिकामाई मस्जिद में ‘कीर्तन सप्ताह’ का भी आयोजन किया करते थे| इसी ‘कीर्तन सप्ताह’ को ‘नाम-सप्ताह’ भी कहा जाता था|
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एक समय की बात है साईं बाबा ने अपने प्रिय भक्त दासगणु को ‘कीर्तन सप्ताह’ करने के लिए कहा| तब दासगणु ने साईं बाबा से कहा कि – “हे देवा ! आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है, परन्तु आप मुझे विश्वास दें कि इस कीर्तन सप्ताह में विठ्ठल अवश्य ही प्रकट होंगे|” दासगणु की बात सुनकर साईं बाबा ने अपने हृदय पर अपना सीधा हाथ रखा| उनका ऐसा करना इस बात का संकेत था कि वह दासगणु को भरोसा दे रहे हों| फिर साईं बाबा बोले कि विठ्ठल अवश्य ही प्रकट होंगे| लेकिन इसके लिए भक्तों में श्रद्धा, विश्वास और तीव्र उत्सुकता का होना भी बहुत जरूरी है| बाबा बोले कि विठ्ठल की पंढरी, रणछोड़ की द्वारका और ठाकुरनाथ की डंकपुरी तो शिरडी ही है| फिर किसी को भी दूर जाने की क्या आवश्यकता है? क्या विठ्ठल कहीं बाहर से आयेंगे ? वे तो शिरडी में ही विराजते हैं| जब भक्तों में भक्ति और प्रेम का प्रवाह सुचारू रूप से होगा तो विठ्ठल स्वयं ही प्रकट होकर उनकी इच्छा अवश्य पूर्ण करेंगे|
फिर ऐसा ही हुआ भी| जब कीर्तन सप्ताह का समापन हुआ तो विठ्ठल स्वयं ही प्रकट हो गए| इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण काका साहब दीक्षित थे, जिन्होंने प्रतिदिन की तरह स्नानादि किया से निवृत्त होने के बाद ध्यान किया तो उन्हें विठ्ठल के साक्षात् दर्शन हुए| फिर जब उस दिन दोपहर को काका साहब साईं बाबा के दर्शन करने के लिए मस्जिद गए तो बाबा ने उनसे पूछा – “क्यों विठ्ठल पाटिल आये थे न? क्या तुमने उसके दर्शन किए? वे बहुत चंचल हैं, उन्हें अच्छी तरह पकड़ लो| जरा-सी भी असावधानी बरतोगे तो वे बेचकर निकल पायेंगे – ऐसा कहकर साईं बाबा मुस्कराने लगे| जैसा कि साईं बाबा का स्वभाव था|
काका साहब दीक्षित को उस दिन सुबह विठ्ठल के दर्शन हुए ही थे| दोपहर में भी उन्हें फिर से एक बार उनके दर्शन हुए| उस दिन एक आश्चर्यजनक घटना यह हुई कि एक चित्र बेचने वाला विठोला (विठ्ठल) के चित्र वहां पर बेचने आया| वे चित्र ठीक वैसे ही थे, जैसे ध्यान करते समय काका साहब को विठ्ठल के दर्शन हुए थे| चित्र को देखकर और बाबा की बात को याद करते ही उन्हें बहुत हैरानी और प्रसन्नता हुई| फिर काका साहब ने चित्र बेचने वाले से खुशी-खुशी एक चित्र खरीद लिया और उसे अपने पूजाघर में स्थापित कर दिया|
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