Homeआध्यात्मिक न्यूज़वर्ण (जाति) व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है वरन् समता ईश्वरीय आज्ञा है! – ईशु – डा. जगदीश गांधी

वर्ण (जाति) व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है वरन् समता ईश्वरीय आज्ञा है! – ईशु – डा. जगदीश गांधी

(1) बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनायी जाती हैं :-

आज से 2500 वर्ष पूर्व निपट भौतिकता तथा भेदभाव बढ़ जाने के कारण मानव के मन में हिंसा का वेग काफी बढ़ गया था। इस कारण से मानव का जीवन दुःखी होता चला जा रहा था, तब परमात्मा ने मनुष्यों पर दया करके और उन्हें अहिंसक विचार का व्यक्ति बनाकर उनके दुखों को दूर करने के लिए भगवान बुद्ध को धरती पर भेजा। बुद्ध जयन्ती/बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण समारोह भी मनाया जाता है। इस पूर्णिमा के दिन ही ४८३ ई. पू. में ८० वर्ष की आयु में, देवरिया जिले के कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में करोड़ों लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है। यह त्यौहार भारत, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया तथा पाकिस्तान में मनाया जाता है।

(2) बुद्ध के मन में बचपन से ही द्वन्द्व शुरू हो गया था :-

गौतम बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु राज्य के लुंबिनी (जो इस समय नेपाल में है) में हुआ था। उनके पिता राजा शुद्धोदन व माता का नाम महामाया था। आपके बचपन का नाम सिद्धार्थ गौतम था। सिद्धार्थ का हृदय बचपन से करूणा, अहिंसा एवं दया से लबालब था। बचपन से ही उनके अंदर अनेक मानवीय एवं सामाजिक प्रश्नों का द्वन्द्व शुरू हो गया था। जैसे – एक आदमी दूसरे का शोषण करें तो क्या इसे ठीक कहा जाएगा?, एक आदमी का दूसरे आदमी को मारना कैसे धर्म हो सकता है? वह एक घायल पक्षी के प्राणों की रक्षा के लिए मामले को राज न्यायालय तक ले गये। न्यायालय ने सिद्धार्थ के इस तर्क को माना कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। सिद्धार्थ एक बीमार, एक वृद्ध तथा एक शव यात्रा को देखकर अत्यन्त व्याकुल हो गये। सिद्धार्थ युद्ध के सर्वथा विरूद्ध थे। सिद्धार्थ का मत था कि युद्ध कभी किसी समस्या का हल नहीं होता, परस्पर एक दूसरे का नाश करने में बुद्धिमानी नहीं है।

(3) ‘बुद्ध’ ने बचपन में ही प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया था :-

बुद्ध ने बचपन में ही ईश्वरीय सत्ता को पहचान लिया और मानवता की मुक्ति तथा ईश्वरीय प्रकाश का मार्ग ढूंढ़ने के लिए उन्होंने राजसी भोगविलास त्याग दिया और अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट झेले। अंगुलिमाल जैसे दुष्टों ने अनेक तरह से उन्हें यातनायें पहुँचाई किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें दिव्य मार्ग की ओर चलने से रोक नहीं पायी। परमात्मा ने पवित्र पुस्तक त्रिपिटक की शिक्षाओं के द्वारा बुद्ध के माध्यम से समता का सन्देश सारी मानव जाति को दिया। त्रिपटक प्रेरणा देती है कि समता ईश्वरीय आज्ञा है, छोटी-बड़ी जाति-पाति पर आधारित वर्ण व्यवस्था मनुष्य के बीच में भेदभाव पैदा करती है। इसलिए वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है। अतः हमें भी बुद्ध की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए।

(4) वैर से वैर कभी कभी नहीं मिटता अवैर (मैत्री) से ही वैर मिटता है :-

जो मनुष्य बुद्ध की, धर्म की और संघ की शरण में आता है, वह सम्यक् ज्ञान से चार आर्य सत्यों को जानकर निर्वाण की परम स्थिति को पाने में सफल होता है। ये चार आर्य सत्य हैं – पहला दुःख, दूसरा दुःख का हेतु, तीसरा दुःख से मुक्ति और चौथा दुःख से मुक्ति की ओर ले जाने वाला अष्टांगिक मार्ग। इसी मार्ग की शरण लेने से मनुष्य का कल्याण होता है तथा वह सभी दुःखों से छुटकारा पा जाता है। निर्वाण के मायने है तृष्णाओं तथा वासनाओं का शान्त हो जाना। साथ ही दुखों से सर्वथा छुटकारे का नाम है- निर्वाण। बुद्ध का मानना था कि अति किसी बात की अच्छी नहीं होती है। मध्यम मार्ग ही ठीक होता है। बुद्ध ने कहा है – वैर से वैर कभी नहीं मिटता। अवैर (मैत्री) से ही वैर मिटता है – यही सनातन नियम है।

(5) पवित्र त्रिपिटक बौद्ध धर्म की पवित्र पुस्तक है :-

भगवान बुद्ध ने सीधी-सरल लोकभाषा ‘पाली’ में धर्म का प्रचार किया। बुद्ध के सरल, सच्चे तथा सीधे उपदेश जनमानस के हृदय को गहराई तक स्पर्श करते थे। भगवान बुद्ध के उपदेशों को उनके शिष्यों ने कठस्थ करके लिख लिया। वे उन उपदेशों को पेटियों में रखते थे। इसी से इनका नाम पिटक पड़ा। पिटक तीन प्रकार के होते हैं – पहला विनय पिटक, दूसरा सुत्त पिटक और तीसरा अभिधम्म पिटक। इन्हें पवित्र त्रिपिटक कहा जाता है। हिन्दू धर्म में चार वेदों का जो पवित्र स्थान है वही स्थान बौद्ध धर्म में पिटकों का है। बौद्ध धर्म को समझने के लिए धम्मपद का ज्ञान मनुष्य को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने के लिए प्रज्जवलित दीपक के समान है। संसार में पवित्र गीता, कुरान, बाइबिल, गुरू ग्रन्थ साहब का जो श्रद्धापूर्ण स्थान है, बौद्ध धर्म में वही स्थान धम्मपद का है। त्रिपटक का संदेश एक लाइन में यह है कि वर्ण (जाति) व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है वरन् समता ईश्वरीय आज्ञा है। जाति के नाम से छोटे-बड़े का भेदभाव करना पाप है।

(6) सभी धर्मों के हृदय से मानव मात्र की एकता का सन्देश प्रवाहित हो रहा है :-

मानव के विकास तथा उन्नति में धर्म का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। वास्तव में धर्म मानव जीवन की आधारशिला है। भिन्न-भिन्न धर्मों के पूजा-उपासना की अलग-अलग पद्धतियों, पूजा स्थलों तथा ऊपरी आचार-विचार में हमें अन्तर दिखाई पड़ता है, पर हम उनकी गहराई में जाकर देखे तो हमें ज्ञान होगा कि सभी धर्मों के हृदय से मानव मात्र की एकता का सन्देश प्रवाहित हो रहा है। भगवान बुद्ध का आदर्श जीवन एवं सन्देश युगों-युगों तक मानव मात्र को समता तथा एकता की प्रेरणा देता रहेगा।

(7) सम्राट अशोक ने हिंसा का मार्ग छोड़कर अहिंसा परमो धर्म का मार्ग अपनाया :-

बुद्ध के समय में सम्राट अशोक राज्य के विस्तार की भावना से युद्ध के द्वारा खून की नदियाँ बहा रहा था। वह अपने बेटे-बेटी को संसार का सारा सुख देने के लिए यह महापाप कर रहा था। अशोक के कानों में जब बुद्ध का अहिंसा परमो धर्म का सन्देश सुनायी पड़ा। तब अशोक ने सोचा अरे अहिंसा परमो धर्म होता है। मैं तो हिंसा कर रहा हूँ। अशोक के अंदर द्वन्द्व शुरू हो गया। वह बुद्ध की शरण में चला गया। बुद्ध की शिक्षाओं से अशोक का हृदय परिवर्तन हो गया। अशोक की प्रेरणा से उसके बेटे महेन्द्र तथा बेटी संघमित्रा ने अनेक देशों में जाकर बुद्ध के समता व अहिंसा के सन्देश को व्यापक रूप से पहुँचाया।

(8) बुद्ध के जीवन से मानव कल्याण की सीख मिलती है :-

बुद्ध ने डाकू अंगुलिमाल, नगर वधू आम्रपाली, सम्राट अशोक, शुद्धोदन, पुत्र राहुल आदि सभी को अहिंसा की राह दिखायी। बुद्ध ने बुद्धं शरणं गच्छामि (अर्थात मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ), धम्मं शरणं गच्छामि (अर्थात मैं धर्म की शरण में जाता हूँ) तथा संघं शरणं गच्छामि (अर्थात मैं संघ की शरण में जाता हूँ) की शिक्षा दी। बुद्ध ने कहा कि केवल बुद्ध की शरण में आने से काम नहीं चलेगा, धर्म की शरण में आओ फिर उन्होंने कहा कि इससे भी काम नहीं चलेगा संघ की शरण में आकर उसके नये-नये सामाजिक नियमों को भी मानने से अब काम चलेगा। भगवान बुद्ध का जीवन हमें सीख देता है कि कैसे एक साधारण गृहस्थ व्यक्ति भी अहिंसा, समता तथा परहित की भावना से मानव कल्याण की उच्च से उच्चतम अवस्था तक पहुँच सकता है।

(9) सभी धर्मों का सार मानव कल्याण है :-

मानव समाज आज नवीन और महान युग में प्रवेश कर रहा है। प्रगतिशील धर्म का उद्देश्य प्राचीन विश्वासों के महत्व को कम करना नहीं है बल्कि उन्हें पूर्ण करना है। आज के समाज को विख्ांडित करने वाले परस्पर विरोधी विचारों की विविधता पर जोर नहीं बल्कि उन्हें एक मिलन-बिन्दु पर लाना है। अतीत काल के अवतारों की महानता अथवा उनकी शिक्षाओं के महत्व को कम करना नहीं बल्कि उनमें निहित आधारभूत सच्चाईयों को वर्तमान युग की आवश्यकताओं, क्षमताओं, समस्याओं और जटिलताओं के अनुरूप दुहराना है।

(10) विद्यालय है सब धर्मों का एक ही तीरथ-धाम :-

सारी सृष्टि को बनाने वाला और संसार के सभी प्राणियों को जन्म देने वाला परमात्मा एक ही है। सभी अवतारों एवं पवित्र ग्रंथों का स्रोत एक ही परमात्मा है। हम प्रार्थना कहीं भी करें, किसी भी भाषा में करें, उनको सुनने वाला परमात्मा एक ही है। अतः परिवार तथा समाज में भी स्कूल की तरह ही सभी लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ मिलकर एक प्रभु की प्रार्थना करें तो सबमें आपसी प्रेम भाव भी बढ़ जायेगा और संसार में सुख, एकता, शान्ति, करूणा, त्याग, न्याय एवं अभूतपूर्व समृद्धि आ जायेगी। विद्यालय है सब धर्मों का एक ही तीरथ धाम – क्लास रूम शिक्षा का मंदिर, बच्चे देव समान। एक छत के नीचे सभी धर्मों की प्रार्थना मिलकर करने का समय अब आ गया है।

 

डा. जगदीश गांधी

डा. जगदीश गांधी

– डा. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं
संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

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