Homeआध्यात्मिक न्यूज़प्रभु को पहचान लेने के कारण ‘राम’ को धरती और आकाश की कोई भी शक्ति “प्रभु का कार्य” करने से रोक नहीं सकी! – डा. जगदीश गांधी

प्रभु को पहचान लेने के कारण ‘राम’ को धरती और आकाश की कोई भी शक्ति “प्रभु का कार्य” करने से रोक नहीं सकी! – डा. जगदीश गांधी

प्रभु को पहचान लेने के कारण ‘राम’ को धरती और आकाश की कोई भी शक्ति ‘‘प्रभु का कार्य’’ करने से रोक नहीं सकी! - डा. जगदीश गांधी

(1) प्रभु को पहचान लेने के कारण ‘राम’ को धरती और आकाश की कोई भी शक्ति प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकी:-

जो कोई प्रभु को पहचान लेते हैं उन्हें धरती और आकाश की कोई भी शक्ति प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकती। मानव सभ्यता के पास जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार राम का जन्म आज से लगभग 7500 वर्ष पूर्व अयोध्या में हुआ था। राम ने बचपन में ही प्रभु को पहचान लिया और उन्होंने अपने शरीर के पिता राजा दशरथ के वचन को निभाने के लिए हँसते हुए 14 वर्षो तक वनवास का दुःख झेला, जबकि उनके पिता राजा दशरथ अपने पुत्र राम के मोह में अपनी आखिरी सांस तक उन्हें हर प्रकार से वन जाने से रोकने की कोशिश करते रहे। राजा दशरथ के साथ ही अयोध्यावासियों ने भी राम को वन जाने से रोकने के लिए बहुत कोशिश की किन्तु राम को प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान कर प्रभु का कार्य करने से कोई भी रोक नहीं सका। इसलिए हमें प्रभु राम की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए।

(2) युगावतार अपने युग की समस्याओं का समाधान मानव जाति को देते हैं:-

रामायण में कहा गया है कि ‘जब जब होहिं धरम की हानी। बाढ़हि असुर, अधर्म, अभिमानी।। तब-तब धरि प्रभु बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।’ अर्थात जब-जब इस धरती पर अधर्म बढ़ता है तथा असुर, अधर्मी एवं अहंकारियों के अत्याचार अत्यधिक बढ़ जाते हैं, तब-तब ईश्वर नये-नये रूप धारण कर मानवता का उद्धार करने, उन्हंे सच्चा मार्ग दिखाने आते हंै। इसी प्रकार पवित्र गीता में परमात्मा की ओर से कहा गया है कि ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।’ अर्थात जब-जब मानव में धर्म की हानि होगी तब-तब धर्म की रक्षा के लिए मैं युग-युग में अपने को सृजित करता हूँ। सज्जनों का कल्याण करता हूँ तथा दुष्टों का विनाश करता हूँं। धर्म की संस्थापना करता हूँ और समाज की भलाई के लिए धर्म के नये-नये सिद्धान्त देता हूँ। अर्थात एक बार स्थापित धर्म की शिक्षाओं को पुनः तरोताजा करता हूँ। अर्थात जब से यह सृष्टि बनी है तभी से धर्म की स्थापना एक बार हुई है। धर्म की स्थापना बार-बार नहीं होती है।

(3) परहित सरिस धरम नहिं भाई:-

रामायण में धर्म के बारे में बताया गया है – परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। अर्थात इस संसार में जितने भी धर्म है उन सबसे ऊँचा धर्म है परहित करना। दूसरों का हित करने से बड़ा और कोई भी धर्म इस संसार में नहीं है तथा दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई अधर्म नहीं है। सभी धर्मों में मुख्य रूप से व्यक्तिगत त्याग करके परहित करने की शिक्षा दी गयी है तथा दूसरों को किसी भी प्रकार की पीड़ा देने को अधर्म बताया गया है। हिन्दू धर्म के अनुसार मन, वाणी और शरीर से किसी को सताये नहीं। वही काम करे, जिससे सभी प्राणियों को प्रसन्नता प्राप्त हो और सबका भला हो। रामचरितमानस में संत तुलसी दास जी कहते है- सोई जानहि जाहि देय जनाई, जानत तुमहि तुमहि हो जाई! अर्थात वही जान पाता है, जिसे प्रभु जनवा दें और जानने के बाद वह प्रभुमय हो जाता है।

(4) यह मानव जन्म हमें आत्मा के विकास के लिए मिला है:-

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार परमात्मा ने दो प्रकार की योनियाँ बनाई हैं। पहली ‘मनुष्य योनि’ एवं दूसरी ‘पशु योनि’। चैरासी लाख ‘‘विचार रहित पशु योनियों’’ में जन्म लेेने के पश्चात् ही परमात्मा कृपा करके मनुष्य को ‘‘विचारवान मानव की योनि’’ देता है। इस मानव जीवन की योनि में मनुष्य या तो अपनी विचारवान बुद्धि का उपयोग करके नौकरी या व्यवसाय के द्वारा या तो अपनी आत्मा को पवित्र बनाकर परमात्मा की निकटता प्राप्त कर ले अन्यथा उसे पुनः 84 लाख पशु योनियों में जन्म लेना पड़ता हैं। इसी क्रम में बार-बार मानव जन्म मिलने पर भी मनुष्य जब तक अपनी ‘विचारवान बुद्धि’ के द्वारा अपनी आत्मा को स्वयं पवित्र नहीं बनाता तब तक उसे बार-बार 84 लाख पशु योनियों में ही जन्म लेना पड़ता हैं और यह क्रम अनन्त काल तक निरन्तर चलता रहता हैं। केवल मनुष्य ही अपनी आत्मा का विकास कर सकता है पशु नहीं।

(5) परमात्मा का वास मनुष्य के पवित्र हृदय में होता है:-

परमात्मा ने कहा कि मैं केवल आत्म तत्व हूँ और मैं मनुष्य की सूक्ष्म आत्मा में ही रहता हूँ। वहीं से इस सृष्टि का संचालन करता हूँ। ‘जबकि मेरी रचना- अर्थात मनुष्य’ के हृदय में (1) आत्मतत्व होने के साथ ही साथ उसके पास (2) शरीर तत्व या भौतिक तत्व भी होता है। यह सारी सृष्टि और सृष्टि की सभी भौतिक वस्तुएं मैंने मनुष्य के लिए बनायी हैं। बस मनुष्य का हृदय और आत्मा मैंने अपने रहने के लिए बनायी है। ऐसा न हो कि कहीं हमारे हृदय में उत्पन्न स्वार्थ का भेड़िया हमारी आत्मा को ही न नष्ट कर डाले। ‘रामायण’ की एक लाइन में सीख है कि सीया राम मय सब जग जानी अर्थात् संसार के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति मेरा राम-सीता की तरह का श्रद्धाभाव हो। ‘गीता’ का सन्देश है कि न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना चाहिए। हमारे ऋषि-मुनियों का चारों वेदों का ज्ञान एक लाइन में है कि उदारचरितानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात उदार चरित्र वाले के लिए यह वसुधा कुटुम्ब के समान है। अत हमें समस्त प्राणी मात्र केे हित के लिए कार्य करना चाहिए।

(6) प्रकृति को ईश्वर का प्रकट रूप माना गया है:-

हिन्दू धर्म का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह परम्परा वैदिककाल तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद पर आधारित धर्म है, जो अपने अंदर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियों, मत और दर्शन को समेटे हुए हैं। इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। पुराणों में हिन्दू इतिहास की शुरूआत सृष्टि की उत्पत्ति से ही मानी जाती है। इसके अलावा भी धार्मिक साहित्य के अनुसार अनेक वंशों की उत्पत्ति और परम्परा का वर्णन है। हिन्दू शास्त्रों में प्रकृति को ईश्वर का प्रकट रूप माना गया है। प्रकृति के पंचतत्व अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी का सम्मान करने से मानव जीवन सुखी, संतुलित, स्वस्थ, योगमय तथा परमात्मामय बनता है। इन पंच तत्वांे में से किसी एक के अभाव में वनस्पति एवं जीव-जगत की कल्पना निरर्थक है। इस सारी सृष्टि का रचनाकार भगवान है। रामचरितमानस में लिखा है कि क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंच तत्व यह रचित शरीरा। इन पंच तत्वों में हम यह अनुभूति कर सकते हंै कि भगवान ही सत्य है, भगवान ही चैतन्य है और भगवान ही आनन्दस्वरूप है, यही सर्वशक्तिमान है और सर्वव्यापक है और सत्चितानन्द है। धर्म के मायने धारण करना है। परमात्मा ने सारी सृष्टि तथा संसार को धारण किया हुआ है। परमात्मा का अंश मानव शरीर में वास करने वाली आत्मा के रूप में है। इसलिए आत्मा अजर अमर है।

(7) धर्म शाश्वत है या परिवर्तनीय?

हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार धरती के प्रथम मानव का नाम मनु तथा प्रथम स्त्री का नाम शतरूपा था। परमात्मा ने इस सृष्टि के प्रथम प्राणी मनु एवं शतरूपा के धर्म (कर्तब्य) को निर्धारित करते हुए आज्ञा दी कि देखो मनु एवं शतरूपा तुम्हारा धर्म (या कर्तब्य) होगा मेरी आज्ञाओं को जानना तथा उन पर चलना और जो व्यक्ति मेरी आज्ञाओं को पवित्र मन से भली-भांति जानकर उन पर चलेंगे उनका मैं ‘कल्याण करूँगा अन्यथा उनका विनाश करूँगा’। परमात्मा ने इस सृष्टि के प्रथम प्राणी मनु एवं शतरूपा को बताया कि मेरे और तुम्हारे दोनांे के धर्म (कर्तब्य) शाश्वत तथा अपरिवर्तनीय होंगे और कभी भी सृष्टि के अनन्त काल तक न तो मेरे धर्म (कर्तब्य) में कोई परिवर्तन होगा और ना ही तुम्हारे (मनुष्य) के धर्म (कर्तब्य) में। मेरा और तुम्हारा दोनों का धर्म (कर्तब्य) एक ही है और वह है बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण मानवजाति की सेवा करना।

(8) हमें प्रभु की इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर जीवन जीना चाहिए:-

प्रभु तो सर्वत्र व्याप्त है पर हम उसको देख नहीं सकते। हम उसको सुन नहीं सकते। हम उसको छू नहीं सकते तो फिर हम प्रभु को जाने कैसे? हमारे स्कूल की प्रार्थना है कि हे मेरे परमात्मा मैं साक्षी देता हूँ कि तूने मुझे इसलिए उत्पन्न किया है कि मैं तूझे जाँनू और तेरी पूजा करूँ। इस प्रकार प्रभु ने हमें केवल दो कार्यों (पहला) परमात्मा को जानने और (दूसरा) उसकी पूजा करने के लिए ही इस पृथ्वी पर मनुष्य रूप में उत्पन्न किया है। प्रभु को जानने का मतलब है परमात्मा द्वारा युग-युग में पवित्र धर्म ग्रंथों गीता की न्याय, त्रिपटक की समता, बाईबिल की करुणा, कुरान की भाईचारा, गुरू ग्रन्थ साहेब की त्याग व किताबे अकदस की हृदय की एकता आदि की ईश्वरीय शिक्षाओं को जानना और परमात्मा की पूजा करने का मतलब है कि परमात्मा की शिक्षाओं पर जीवन-पर्यन्त दृढ़तापूर्वक चलते हुए अपनी नौकरी या व्यवसाय करके अपनी आत्मा का विकास करना। जो लोग प्रभु की इच्छा एवं आज्ञा को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं परमात्मा उनकी सहायता अवश्य करता है। अतः हमें प्रभु की इच्छा को ही अपनी इच्छा बनाकर जीवन जीना चाहिए।

 

डा. जगदीश गांधी

डा. जगदीश गांधी

– डा. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं
संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

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