मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी! – लाला लाजपत राय – प्रदीप कुमार सिंह
लाला लाजपत राय 28 जनवरी 1865 को पंजाब के मोगा जिले के एक अग्रवाल परिवार में हुआ र्था वह देश के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे। आजीवन ब्रिटिश राजशक्ति का सामना करते हुए अपने प्राणों की परवाह न करने वाले जज्बे तथा जुनून के कारण पंजाब केसरी भी कहा जाता है। उन्हें ‘पंजाब के शेर’ की उपाधि भी मिली थी। लाला लाजपत राय को भारत के महान क्रांतिकारियों में गिना जाता है।
लालाजी के पिता अध्यापक लाला राधाकृष्ण लुधियाना जिले के जगराँव कस्बे के अग्रवाल वैश्य थे। वे उर्दू तथा फारसी के अच्छे जानकार थे। इसके साथ ही इस्लाम के मन्तव्यों में भी उनकी गहरी आस्था थी। वे मुसलमानी धार्मिक अनुष्ठानों का भी नियमित रूप से पालन करते थे। नमाज पढ़ना और रमजान के महीने में रोजा रखना उनकी जीवनचर्या का अभिन्न अंग था। अपने पुत्र लाला लाजपत राय के आर्य समाजी बन जाने पर उन्होंने वेद के दार्शनिक सिद्धान्त ‘त्रेतवाद’ को समझने में भी रुचि दिखाई। पिता की इस जिज्ञासु प्रवृति का प्रभाव उनके पुत्र लाजपत राय पर भी पड़ा था। लाजपत राय के पिता वैश्य थे, किंतु उनकी माती सिक्ख परिवार से थीं। दोनों के धार्मिक विचार भिन्न-भिन्न थे। वे एक हिन्दू नारी की तरह ही अपने पति की सेवा करती थीं।
लाला जी ने देश के आर्थिक विकास के लिए पंजाब नैशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कम्पनी की स्थापना भी की थी। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गरम दल के तीन प्रमुख नेताओं लाल-बाल-पाल में से एक थे। लाल अर्थात लाला जी, बाल अर्थात बाल गंगाधर तिलक तथा पाल अर्थात बिपिन चन्द्र पाल। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल के प्रमुख नेता थे। इन्हीं तीनों नेताओं ने सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग की थी बाद में समूचा देश इनके समर्थन में खड़ा हो गया था।
लाजपत राय ने सन 1880 में कलकत्ता तथा पंजाब विश्वविद्यालय से एंट्रेंस की परीक्षा एक वर्ष में उत्तीर्ण की और आगे पढ़ने के लिए लाहौर आ गए। यहाँ वे गर्वमेंट कॉलेज में प्रविष्ट हुए और 1882 में एफ. ए. की परीक्षा तथा कानून की शिक्षा प्राप्त कर लाला जी ने कुछ समय हरियाणा के रोहतक और हिसार शहरों में वकालत की। इन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती के साथ मिलकर आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया। लाला हंसराज एवं कल्याण चन्द्र दीक्षित के साथ दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों का प्रसार किया, लोग जिन्हें आजकल डीएवी स्कूल्स व कालेज के नाम से जानते है। लालाजी ने अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा भी की थी। स्वामी श्रद्धानन्द को आर्य समाज में लाने का श्रेय भी उन्हें ही है।
स्वामी दयानंद जी के देहावसान के बाद उन्होंने आर्य समाज के कार्यों को पूरा करने के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया था। हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष, प्राचीन और आधुनिक शिक्षा पद्धति में समन्वय, हिन्दी भाषा की श्रेष्ठता और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आर-पार की लड़ाई आर्य समाज से मिले संस्कारों के ही परिणाम थे।
1897 और 1899 के देशव्यापी अकाल के समय लाजपत राय पीड़ितों की सेवा में जी जान से जुटे रहे। जब देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा तो लालाजी राहत कार्यों में सबसे अग्रिम मोर्चे पर दिखाई दिए। देश में आए भूकंप, अकाल के समय ब्रिटिश शासन ने कुछ नहीं किया। लाला जी ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा की।
1885 में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस वर्षो तक कांग्रेस ने एक अंग्रेजी शासन की समर्थक संस्था का चरित्र बनाये रखा था। इसके नेतागण वर्ष में एक बार बड़े दिन की छुट्टियों में देश के किसी नगर में एकत्रित होने और विनम्रतापूर्वक शासनों के सूत्रधारों से सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिकाधिक संख्या में प्रविष्ट कराने का प्रयत्न करते थे। जब ब्रिटिश युवराज के भारत आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उनका डटकर विरोध किया। कांग्रेस के मंच ये यह अपनी किस्म का पहला तेजस्वी भाषण हुआ था, जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी।
लालाजी ने ‘तरुण भारत’ नामक एक देशप्रेम तथा नवजागृति से परिपूर्ण पुस्तक लिखी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। उन्होंने ‘यंग इंण्डिया’ नामक मासिक पत्र भी निकाला। इसी दौरान उन्होंने ‘भारत का इंग्लैंड पर ऋण’, ‘भारत के लिए आत्मनिर्णय’ आदि पुस्तकें लिखीं, जो यूरोप की प्रमुख भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। लालाजी परदेश में रहकर भी अपने देश और देशवासियों के उत्थान के लिए काम करते रहे थे।
प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के दौरान वे एक प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य के रूप में पुनः इंग्लैंड गये और देश की आजादी के लिए प्रबल जनमत जागृत किया। वहाँ से वे जापान होते हुए अमरीका चले गये और स्वाधीनता-प्रेमी अमरीकावासियों के समक्ष भारत की स्वाधीनता का पक्ष प्रबलता से प्रस्तुत किया। यहाँ ‘इण्डियन होमरूल लीग’ की स्थापना की तथा कुछ ग्रन्थ भी लिखे। अपने चार वर्ष के प्रवास काल में उन्होंने ‘इंडियन इन्फॉर्मेशन’ और ‘इंडियन होमरूल’ दो संस्थाएं सक्रियता से चलाईं। लालाजी ने जागरूकता और स्वतंत्रता के प्रयास किए। ‘लोक सेवक मंडल’ स्थापित करने के साथ वह राजनीति में आए। अंग्रेजी भाषा में इनकी प्रसिद्ध रचनायें इस प्रकार हैं यंग इंडिया, इंग्लैण्डस डेबट टू इण्डिया, दि पालिटिकल फ्यूचर आॅफ इण्डिया, यनहैप्पी इण्डिया तथा दि स्टोरी आॅफ माई लाइफ (आत्मकथा)।
20 फरवरी, 1920 को जब लाला लाजपत राय स्वदेश लौटे तो अमृतसर में ‘जलियांवाला बाग काण्ड’ हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला में जल रहा था। इसी बीच महात्मा गाँधी ने ‘असहयोग आन्दोलन’ आरम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ इस संघर्ष में जुट गये, जो सैद्धांतिक तौर पर रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में चलाया जा रहा था।
30 अक्टूबर 1928 में इन्होंने साइमन कमीशन के विरुद्ध आयोजित एक विशाल प्रदर्शन में हिस्सा लिया, जिसके दौरान हुए लाठी-चार्ज में ये बुरी तरह से घायल हो गये। अन्ततः गम्भीर चोटों की वजह से 17 नवम्बर सन् 1928 को देश की आजादी के लिए यह महान सपूत बलिदान हो गया। अर्थात इनकी महान आत्मा ने पार्थिव देह त्याग दी। उस समय इन्होंने कहा था – मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी। और वही हुआ भी लालाजी के बलिदान के 20 साल के भीतर ही ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया।
लाला जी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी पर जान लेवा लाठीचार्ज का बदला लेने का निर्णय किया। इन देशभक्तों ने अपने प्रिय नेता की हत्या के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसम्बर 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफसर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लालाजी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फाँसी की सजा सुनाई गई।
लाला जी के चार अनमोल वचन इस प्रकार हैं – 1. अतीत को देखते रहना व्यर्थ है, जब तक उस अतीत पर गर्व करने योग्य भविष्य के निर्णाण के लिए कार्य न किया जाये। 2. नेता वह है जिसका नेतृत्व प्रभावशाली हो, जो अपने अनुयायियों से सदैव आगे रहता हो, जो साहसी और निर्भीक हो। 3. पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ शांतिपूर्ण साधनों से उद्देश्य पूरा करने के प्रयास को ही अहिंसा कहते हैं। 4. पराजय और असफलता कभी-कभी विजय की और जरूरी कदम होते हैं।
लाला जी जैसे कलम के सिपाही के जुनून तथा जज्बे के आधार पर हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते है कि कलम सबसे शक्तिशाली हथियार है जिससे विश्व को बदला जा सकता है। वैकल्पिक राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था पर दर्जनों पुस्तकों के महान लेखक विश्वात्मा भरत गांधी भी अपनी कलम के सबसे शक्तिशाली हथियार से प्रत्येक वोटर को वोटरशिप दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। इंटरनेट के इस युग में पूरी दुनिया ग्लोबल विलेज बनती जा रही है। जिसमें धर्म और राष्ट्रीयता के आधार पर बंटवारा आत्मघाती हो गया है। ऐसी स्थिति में धर्म और राष्ट्रीयता के नाम पर खून-खरबा और युद्ध के लिए लोगों को तैयार करना विश्व के आज के नेताओं की या तो मानसिक कमजोरी है या अपना इतिहास बनाने के लिए जानबूझ कर की जा रही साजिश है। उन्होंने मशीनों के कारण, कुदरत की दौलत के कारण और कानूनों के कारण फ्री में पैदा हो रहे पैसे को वोटरों के बीच फ्री में बांटने पर लम्बे संघर्ष के बाद बनी राष्ट्रीय सहमति पर अपनी मीडिया बिरादरी के लोगों को बधाई दी।
विश्वात्मा भरत गांधी के नेतृत्व में विश्व परिवर्तन मिशन सही समय पर लोकतंत्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रवाद और नागरिकता की नई परिभाषा लेकर अखाड़े में उतरा है। वोटरशिप की तरह के ही आंदोलन के कारण ही अभिजीत बनर्जी को नोबल पुरस्कार मिला। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में ऐंड्रू यांग ने वोटरशिप के सिद्धांत को मुद्दा बनाया है। हमें यूरोपियन यूनियन की तर्ज पर भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, चीन और मालद्वीव की एक साझी संसद, साझी सरकार साझा न्यायालय व साझी सेना बनाने के लिए हम अंतिम सांस तक लड़ेगे।
2018 में भारत सरकार ने किसान सम्मान निधि के नाम पर किसानों को 500 रूपये प्रतिमाह देना शुरू किया। 2019 में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने न्याय योजना के नाम पर 6000 रूपया प्रतिमाह देने की घोषणा की। इसलिए राष्ट्र ने माना कि देश में फ्री में खजाने से पैसा देना वोटर का संवैधानिक हक बनता है। 15 अगस्त 1947 को वोट देने की राजनैतिक आजादी के साथ अब हमें आर्थिक आजादी के लिए वोटरशिप अधिकार कानून बनाकर असली लोकतंत्र को जमीन पर उतारने के लिए संकल्पित होकर संघर्ष करना है!
-प्रदीप कुमार सिंह, लेखक
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