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हीरा जनम अनमोल था, कौड़ी बदले जाये – प्रदीप कुमार सिंह

हीरा जनम अनमोल था, कौड़ी बदले जाये - प्रदीप कुमार सिंह

आज समाज, देश और विश्व के देशों में बढ़ती हुई भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वार्थलोलुपता, अनेकता आदि समस्याओं से सारी मानवजाति चिंतित है। वास्तव में ये ऐसी मूलभूत समस्यायें हैं जिनसे निकल कर ही हत्या, लूट, मार-काट, आतंकवाद, धार्मिक विद्वेष, युद्धों की विभीषिका आदि समस्याओं ने जन्म लिया है। इस प्रकार आज इन समस्याओं ने पूरे विश्व की मानवजाति को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। ऐसी भयावह परिस्थिति में समाज को सही राह दिखाने के लिए आज कबीर दास जी जैसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है। कबीरदास जी ने समाज में व्याप्त भेदभाव को समाप्त करने पर बल देते हुए कहा था कि ‘‘वही महादेव वही मुहम्मद ब्रह्मा आदम कहिए। कोई हिंदू कोई तुर्क कहांव एक जमीं पर रहिए।’’ कबीरदास जी एक महान समाज सुधारक थे। उन्होंने अपने युग में व्याप्त सामाजिक अंधविश्वासों, कुरीतियों और रूढ़िवादिता का विरोध किया। उनका उद्देश्य विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना था, जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। कबीर दास जी ने कहा था कि ‘‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो हितय ढूंढो आपनो, मुझसा बुरा न कोय।।’’

कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य जीवन तो अनमोल है इसलिए हमें अपने मानव जीवन को भोग-विलास में व्यतीत नहीं करना चाहिए बल्कि हमें अपने अच्छे कर्मों के द्वारा अपने जीवन को उद्देश्यमय बनाना चाहिए। कबीर दास जी कहते हैं कि ‘‘रात गंवाई सोय कर, दिवस गवायों खाय। हीरा जनम अनमोल था, कौड़ी बदले जाये।। अर्थात् मानव जीवन तो अनमोल होता है किन्तु मनुष्य ने सारी रात तो सोने में गंवा दी और सारा दिन खाने-पीने में बिता दिया। इस प्रकार अज्ञानता में मनुष्य अपने अनमोल जीवन को भोग-विलास में गंवा कर कौड़ी के भाव खत्म कर लेता है। कबीर दास जी कहते हैं कि ‘‘पानी मेरा बुदबुदा, इस मानुष की जात। देखत ही छिप जायेंगे, ज्यौं तारा परभात।।’’ अर्थात् मनुष्य का जीवन पानी के बुलबुले के समान है, जो थोड़ी सी हवा लगते ही फूट जाता है। जैसे सुबह होते ही रात में निकलने वाले तारे छिप जाते हैं, वैसे ही मृत्यु के आगमन पर परमात्मा द्वारा दिया गया यह जीवन समाप्त हो जाता है। इसलिए हमें अपने मानव जीवन के उद्देश्य को जानकर उनको पूरा करने का हरसंभव प्रयत्न करना चाहिए।

आज भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का मूल मंत्र संसार से लुप्त होता जा रहा है। कहीं हिंदू, कहीं मुसलमान, कहीं ईसाई, कहीं पारसी और न जाने कितनी कौमों के लबादे ओढ़े आदमी की शक्ल के लाखों, करोड़ों लोगों की भीड़ दिखाई दे रही है। गौर से देखने पर ऐसा लगता है कि जैसे इस भीड़ में आदमी तो नजर आ रहे हैं पर आदमियत कहीं खो गई है। शक्ल सूरत तो इंसान जैसी है, मगर कारनामे शैतान जैसे होते जा रहे हैं, जबकि मानव शरीर तो नश्वर है इसे एक न एक दिन मिट्टी में मिल ही जाना है। इसलिए हमें अपने शरीर पर कभी अभिमान नहीं करना चाहिए। कबीर दास जी कहते हैं कि ‘‘माटी कहै कुम्हार को, क्या तू रौंदे मोहि। एक दिन ऐसा होयगा, मैं रौदँूगी तोहि।’’ अर्थात् मिट्टी कुम्हार से कहती है कि समय परिवर्तनशील है और एक दिन ऐसा भी आयेगा जब तेरी मृत्यु के पश्चात् मैं तुझे रौंदूगी। इसलिए हमें परमपिता परमात्मा द्वारा दिये गये शरीर पर अभिमान न करते हुए इस जगत् में रहते हुए मानव हित का अधिक से अधिक काम करना चाहिए।

कबीर तो सच्चे अर्थों में मानवतावादी थे। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच मानवता का सेतु बांधा। जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। कबीरदास ने हिन्दू-मुसलमान का भेद मिटाकर हिन्दू भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयांगम कर लिया। कबीरदास जी एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। वे भेदभाव रहित समाज की स्थापनाा करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप में विश्वास प्रकट किया। वे हर स्तर पर सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध लड़ते रहे और सभी धर्मों के खिलाफ बोलते भी रहे। जैसे उन्होंने मूर्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए कहा कि ‘‘पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजौं पहार। या ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।’’ इसी प्रकार उन्होंने मुसलमानों से कहा- ‘‘कंकड़ पत्थर जोरि के, मस्जिद लयी बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।’’

एकेश्वरवाद के समर्थक कबीरदास जी का मानना था कि ईश्वर एक है। उन्होंने व्यंग्यात्मक दोहों और सीधे-सादे शब्दों में अपने विचार को व्यक्त किया। फलतः बड़ी संख्या में सभी धर्म एवं जाति के लोग उनके अनुयायी हुए। संत कबीर का कहना था कि सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है। सिर्फ उनके कर्मकांड अलग-अलग होते हैं। उनका कहना था कि ‘‘माला फेरत जुग गया, मिटा न मनका फेर। कर का मनका डारि के, मन का मनका फेर।’’ अर्थात् मनुष्य ईश्वर को पाने की चाह में माला के मोती को फिरता रहता है परन्तु इससे उसके मन का दोष दूर नहीं होता है। कबीर जी कहते हैं कि हमें हाथ की माला को छोड़ देना चाहिए क्योंकि इससे हमें कोई लाभ नहीं होने वाला है। हमें तो केवल अपने मन को एकाग्र करके भीतर की बुराइयों को दूर करना चाहिए। कबीर दास जी का कहना है कि ‘‘मन मक्का दिल द्वारिका, काया काशी जान। दस द्वारे का देहरा, तामें जोति पिछान।’’ अर्थात् यह पवित्र मन ही मक्का, हृदय द्वारिका और सम्पूर्ण शरीर ही काशी है।

मानव आलस्य के कारण आज का काम कल पर टालने का प्रयास करता है। कबीर दास जी कहते हैं कि हमें आज का काम कल पर न टाल कर उसे तुरन्त पूरा कर लेना चाहिए। कबीर जी काम को टालते रहने की आदत के बहुत विरोधी थे। वे इस तथ्य को जानते थे कि मनुष्य का जीवन छोटा होता है जबकि उसे ढेर सारे कामों को इसी जीवन में रहते हुए करना है। आज से छः सौ वर्ष पूर्व भी समय के सदुपयोग के महत्व को समझते हुए कबीर दास जी ने कहा कि ‘‘काल करे जो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होयगी, बहुरी करोगे कब।’’ इस दोहे मंे कबीर जी ने समय के महत्व को थोड़े शब्दों में ही समझा दिया है। उनका कहना था कि मनुष्य जीवन की उपयोग की बात तो करते हैं किन्तु उन क्षणों एवं समय पर, जो कि जीवन की इकाई है, कोई ध्यान नहीं देते हैं। इस प्रकार समय को गवांकर वास्तव में हम अपने अनमोल जीवन को गंवाने का काम करते हैं। आज मानव जीवन में पाये जाने वाले तनाव का भी सबसे बड़ा कारण ‘समय का दुरुपयोग’ ही है। जब हम किसी काम को तुरन्त न करके आगे के लिए टाल देते हैं तो यही काम हमें बहुधा आपात स्थिति में ला देता है, जिससे मनुष्य में तनाव की समस्या उत्पन्न हो जाती है।

कबीरदास जी जिस युग में आये वह युग भारतीय इतिहास में आधुनिकता के उदय का समय था। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और उसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। लोककल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर दास जी एक सच्चे विश्व-प्रेमी थे। कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग-युग के गुरू थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर क्षेत्र में नव-निर्माण किया था। कबीरदास जी अपने जीवन में प्राप्त की गयी स्वयं की अनुभूतियों को ही काव्यरूप में ढाल देते थे। उनका स्वयं का कहना था ‘‘मैं कहता आंखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।’’ इस प्रकार उनके काव्य का आधार स्वानुभूति या यर्थाथ ही है। इसलिए अब वह समय आ गया है जबकि हम वर्तमान समाज में व्याप्त धर्म, जाति, रंग एवं देश के आधार पर बढ़ते हुए भेदभाव जैसी बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेकें और संसार की समस्त मानवजाति में इंसानियत एवं मानवता की स्थापना के लिए कार्य करें।

 

-प्रदीप कुमार सिंह, लेखक

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