अध्याय 131
1 [षयेन]
धर्मात्मानं तव आहुर एकं सर्वे राजन महीक्षितः
स वै धर्मविरुद्धं तवं कस्मात कर्म चिकीर्षसि
1 [षयेन]
धर्मात्मानं तव आहुर एकं सर्वे राजन महीक्षितः
स वै धर्मविरुद्धं तवं कस्मात कर्म चिकीर्षसि
1 [व]
इत्य उक्तवति भीष्मे तु तूष्णी भूते युधिष्ठिरः
पप्रच्छावसरं गत्वा भरातॄन विदुर पञ्चमान
किसी नगर में एक सेठ रहता था| उसके पास बहुत धन था| उसकी तिजोरियां हमेशा मोहरों से भरी रहती थीं, लेकिन उसका लोभ कम नहीं होता था| जैसे-जैसे धन बढ़ता जाता था, उसकी लालसा और भी बढ़ती जाती थी|
Vaisampayana said, “In this connection, the high-souled Yudhishthira saidunto Arjuna these words fraught with reason.
1 [य]
असंशयं संजय सत्यम एतद; धर्मॊ वरः कर्मणां यत तवम आत्थ
जञात्वा तु मां संजय गर्हयेस तवं; यदि धर्मं यद्य अधर्मं चरामि
“Markandeya continued, ‘On one occasion, O Bharata, when that king, thelord of the Madras, was seated with Narada in the midst of his court,engaged in conversation,
दुख और पीड़ा जीवन के अनिवार्य अंग हैं। मनुष्य का उससे बिल्कुल अछूते रहने की कल्पना असंभव है। जीवन में सुख के साथ दुख भी अपने क्रम से आएगा ही। अच्छी परिस्थितियों के बाद विपरीत परिस्थितियों का यह चक्र जीवनभर यूं ही चलता रहेगा। आज मनुष्य विकास की उस अवस्था तक पहुंच गया है, जहां से उसे निरंतर विकासपथ पर आगे ही आगे बढ़ते जाना है।
“Manu said, ‘Upon the appearance of the physical and mental sorrow, onedoes not become able to practise yoga.
Dhritarashtra said, “Tell me, O Sanjaya, how that great bowman Drona andthe Panchala prince of Prishata’s race encounter each other in battle,each striving his best.