HomePosts Tagged "शिक्षाप्रद कथाएँ" (Page 154)

शनि के नाम से ही हर व्यक्ति डरने लगता है। शनि की दशा एक बार शुरू हो जाए तो साढ़ेसात साल बाद ही पीछा छोड़ती है। लेकिन हनुमान भक्तों को शनि से डरने की तनिक भी जरूरत नहीं। शनि ने हनुमान को भी डराना चाहा लेकिन मुंह की खानी पड़ी आइए जानें कैसे…

भगवान श्रीराम वनवास काल के दौरान संकट में हनुमान जी द्वारा की गई अनूठी सहायता से अभिभूत थे। एक दिन उन्होंने कहा, ‘हे हनुमान, संकट के समय तुमने मेरी जो सहायता की, मैं उसे याद कर गदगद हो उठा हूं।

एक औरत एक आदमी को साथ लेकर बादशाह अकबर के दरबार में उपस्थित हुई और अपना दुखड़ा रोने लगी – “हुजूर, मैं लुट गई, इस आदमी ने मेरे सारे गहने लूट लिए हैं, अब आप ही इंसाफ करें|”

पाण्डु की दो पत्नियां थीं – माद्री और कुंती| दोनों रूपवती और गुणवती थीं| दोनों के हृदय में धर्म और कर्तव्य के प्रति अत्यधिक निष्ठा थी| दोनों पाण्डु को अपने जीवन का सर्वस्व समझती थीं| दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम था| माद्री अवस्था में कुछ बड़ी थी| अत: कुंती उसे अपनी बड़ी बहन समझती थी|

सतयुग और त्रेता युग बीतने के बाद जब द्वापर युग आया तो पृथ्वी पर झूठ, अन्याय, असत्य, अनाचार और अत्याचार होने लगे और फिर प्रतिदिन उनकी अधिकता में वृद्धि होती चली गई| अधर्म के भार से पृथ्वी दुखित हो उठी| उसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पास पहुंचकर प्रार्थना की कि वे उसे इस असहनीय भार से मुक्त करें|

दुर्योधन के अंत के साथ ही महाभारत के महायुद्ध का भी अंत हो गया। माता गाँधारी दुर्योधन के शव के पास खडी फफक-फफक कर रो रही हैं। पुत्र वियोग में “गाँधारी का भगवान कृष्ण को श्राप देना, भगवान कृष्ण का श्राप को स्वीकार करना और गाँधारी का पश्चताप करना”। इसका बडा ही मार्मिक वर्णन किया है धर्मवीर भारती जी ने (गीता-कविता से संकलित)

अकबर और बीरबल शाम के समय घोड़े पर बैठे नगर की सैर कर रहे थे| तभी बादशाह अकबर को मजाक सूझा और उन्होंने बीरबल से कहा – “भई अस्य पिदर सुमास्त|”

प्राचीन काल में मथुरा में एक प्रतापी नृपति राज्य करते थे| उनका नाम शूरसेन था| वे भगवान श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के पिता था| वे बड़े धर्मात्मा एवं प्रतिज्ञापालक थे| शूरसेन के एक अनन्य मित्र थे, जिनका नाम कुंतिभोज था| कुंतिभोज के पास सबकुछ तो था, किंतु संतान नहीं थी| वे संतान के अभाव में दिन-रात दुखी और चिंतित रहा करते थे| शूरसेन ने कुंतिभोज के दुख को देखकर उन्हें वचन दिया था कि वे अपनी प्रथम संतान उन्हें दान में दे देंगे|

एक बार नंदकिशोर ने सनतकुमारों से कहा कि चौथ की चंद्रमा के दर्शन करने से श्रीकृष्ण पर जो लांछन लगा था, वह सिद्धि विनायक व्रत करने से ही दूर हु‌आ था। ऐसा सुनकर सनतकुमारों को आश्चर्य हु‌आ।