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महान् तीर्थ – माता-पिता

माँ! पहले विवाह मैं करूँगा| एकदन्त के सहसा ऐसे वचन सुनकर पहले तो शिवा हँसीं और अपने प्रिय पुत्र विनायक से स्नेहयुक्त स्वर में बोलीं-‘हाँ, हाँ! विवाह तो तेरा भी होगा ही, पर स्कन्द तुझसे बड़ा है| पहले उसका विवाह होगा|’

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‘नहीं माँ! वह बड़ा हुआ तो क्या हुआ, पहले मेरा विवाह करना पड़ेगा|’ माँ की बात बीच में ही काटते हुए लम्बोदर ने कहा|

‘अरे! वह देख, स्कन्द भी आ रहा है|’-शिवा बोली|

स्कन्द ने जब यह सुना तब अपने हठी स्वभाव के कारण उन्होंने कहा-‘माँ! नियमानुसार पहले मेरा विवाह होगा|’

एकदन्त ने कहा-‘नहीं, पहले मेरा विवाह होगा|’

शशांकशेखर ने दूर से ही देखा-दोनों बालक माँ के पास खड़े हैं वे भी बालकों के पास आ गये| शिवा ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा-‘प्रभो! ये दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े हैं, आप ही इन्हें समझाइये न!’

शिव ने पूर्ण वृत्तान्त सुना और बड़ी देर तक हँसने के पश्चात् वे गम्भीर होकर बोले-‘गणेश और स्कन्द! पहले किसका विवाह हो, इसके लिये तुम दोनों को परीक्षा देनी होगी, जो उसमें उत्तीर्ण होगा, उसी का विवाह पहले कर दिया जायगा|’ दोनों ने सहमति प्रकट की|

आशुतोष ने परीक्षा अत्यन्त सूक्ष्म विवरण बताया-‘देखो, जो पृथ्वी की परिक्रमा कर पहले लौटेगा, उसी का विवाह पहले होगा|

मयूरवाहन कार्तिकेय तत्क्षण मंदरगिरि से द्रुतगति से चल पड़े| मूषकवाहन मूक शान्त खड़े थे| बेचारा चूहा भी अपनी गोल-गोल आँखों से टुकुर-टुकुर निहार रहा था|

‘अरे, खड़ा-खड़ा मुँह क्या तक रहा है! तेरा बड़ा भाई चला भी गया| तू भी जा न परिक्रमा पर|’-भगवती ने गणेश से कहा|

अचानक गणेश को न जाने क्या सुझा, उन्होंने माता-पिता से विनय करते हुए कहा-‘मैं अभी आ रहा हूँ, तबतक आप दोनों यहीं बैठें,-कहते हुए गणेश भवन की ओर दौड़ पड़े| शिवा-शिव एक दूसरे को देखते रह गये|

‘क्या करने गया है?’ अभी दोनों आश्चर्यचकित एक-दूसरे को देख ही रहे थे कि गणेश हाथ में पूजा की थाली लिये शीघ्रतापूर्वक आते दीख पड़े| निकट आकर उन्होंने पूजा की थाली दोनों के चरणों में रख दी और हाथ जोड़कर माता-पिता की परिक्रमा करने लगे| शिव-पार्वती इस विचित्र दृश्य को देखकर अपनी हँसी रोक न सके और बोले-‘अरे, यह क्या नवीन आयोजन हो रहा है?’ बिना प्रत्युत्तर दिये गणेश ने सात परिक्रमाएँ पूर्ण कीं तथा पूजा की थाली उठाकर माता-पिता की आरती उतारी, उन्हें चन्दन लगाया, भोग की कटोरी सामने रखी और दोनों को साष्टांगङ दण्डवत् प्रणाम किया! फिर वे उठकर बोले-‘करो मेरा विवाह|’

शिवा-शिव दोनों जी भरकर हँसे| शिव ने पूछा-‘अरे, क्या गिरि-काननोंसहित सप्तद्वीपमयी सम्पूर्ण वसुन्धरा की परिक्रमा हो गयी?’

बुद्धिसिन्धु गणेश स्वीकृत में सिर हिलाते हुए कहा-‘अब और रह ही क्या गया है?’ वेद-शास्त्रों के द्वारा उद्घोषित प्रणाम के अनुसार माता-पिता की परिक्रमा करने से पृथ्वी की परिक्रमा पूरी होती है| आशुतोष भगवान् शिव और माता पार्वती ने भी यह स्वीकार किया| इस प्रतियोगिता में सिद्धिविनायक गणेश की विजय हुई|

इससे सिद्ध हुआ कि माता-पिता ही महान् तीर्थ हैं| यदि कोई पुत्र सम्पूर्ण धरा की परिक्रमा करने का फल प्राप्त करना चाहता है ओ वह अपने माता-पिता को छोड़कर तीर्थयात्रा करने वाला पुत्र माता-पिता की हत्या के पाप का भागी बनता है| अन्य तीर्थ तो दूर हैं, परंतु धर्म का साधनभूत तीर्थ तो निकट ही सुलभ हैं| पुत्र के लिये माता-पिता तथा स्त्री के लिये पति-जैसे शुभ तीर्थ घर में ही विद्यमान हैं|