Homeअतिथि पोस्टआज हमारे नन्हें-मुन्नों को संस्कार कौन दे रहा है? माँ? दादी माँ? या टी.वी. और सिनेमा?

आज हमारे नन्हें-मुन्नों को संस्कार कौन दे रहा है? माँ? दादी माँ? या टी.वी. और सिनेमा?

आज हमारे नन्हें-मुन्नों को संस्कार कौन दे रहा है? माँ? दादी माँ? या टी.वी. और सिनेमा?

(1) आज हमारे नन्हें-मुन्नों को संस्कार कौन दे रहा है?

वर्तमान समय मंे परिवार शब्द का अर्थ केवल हम दो हमारे दो तक ही सीमित हुआ जान पड़ता हैं। परिवार में दादी-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, आदि जैसे शब्दों को उपयोग अब केवल पुराने समय की कहानियों को सुनाने के लिए ही किया जाता है। अब दादी और नानी के द्वारा कहानियाँ सुनाने की घटना पुराने समय की बात जान पड़ती है। अब बच्चे टी0वी, डी0वी0डी0, कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि के साथ बड़े हो रहे हैं। परिवार में बच्चों को जो संस्कार पहले उनके दादा-दादी,  माँ-बाप तथा परिवार के अन्य बड़ेे सदस्यों के माध्यम से उन्हें मिल रहे थे, वे संस्कार अब उन्हें टी0वी0 और सिनेमा के माध्यम से मिल रहे हैं।

(2) घर की चारदीवारी के अंदर भी बच्चा अब सुरक्षित नहीं है:

आज हमने अपने घरों में रंगीन केबिल टी0वी0 के रूप में बच्चों के लिए एक हेड मास्टर नियुक्त कर लिया है। बाल तथा युवा पीढ़ी इस हेड मास्टर रूपी बक्से से अच्छी बातों की तुलना में बुरी बातें ज्यादा सीख रहे हैं। टी0वी0 की पहुँच अब बच्चों के पढ़ाई के कमरे तथा बेडरूम तक हो गयी है। यह बड़ी ही सोचनीय एवं खतरनाक स्थिति है। दिन-प्रतिदिन टी0वी0 के माध्यम से फ्री सेक्स, हिंसा, लूटपाट, निराशा, अवसाद तथा तनाव से भरे कार्यक्रम दिखाये जा रहे हैं। बाल एवं युवा पीढ़ी फ्री सेक्स, लूटपाट, बलात्कार, हत्या तथा आत्महत्या करने वाले समाचारों से सीख रही है।

(3) युवक ने टी0वी0 देखने में खलल पड़ने पर उठाया हिंसक कदम:

हैवानियत की सारी हदें पार कर कानपुर के श्यामनगर के भगवंत टटिया इलाके मंे हुई हिंसक वारदात में एक युवक ने सिर्फ इसलिए अपनी बहन और दो मासूम भान्जियों के गले रेत दिए क्योंकि उसके टी0वी0 देखने में खलल पड़ रही थी। इस युवक को अपने किए पर पछतावा भी नहीं है। इस हिंसक वारदात में माँ माया और बहन सुनीता के काम पर जाने के बाद जब बच्चे रोए तो अनीता ने टीवी देख रहे भाई सुनील से चाकलेट लाने को कहा, इस पर वह भड़क गया। सुनील ने दरवाजा बंद किया और बहन अनीता की गर्दन पर गड़ासे का तेज वार कर उसे मौत के घाट उतार दिया। बाद में सुनील ने मासूम भान्जियों प्रज्ञा व शिवी की भी गर्दन रेत डाली। इसके बाद सुनील ने अपनी गर्दन पर भी प्रहार कर लिया।


(4) बच्चों के मन-मस्तिष्क पर टी0वी0 तथा सिनेमा के द्वारा पड़ने वाले दुष्प्रभाव:

इसी प्रकार की एक घटना में एक बच्चे ने अपनी दादी को सिर्फ इसलिए मार डाला था क्योंकि उसकी दादी ने उसे गन्दी पिक्चर देखने से मना किया था। उसके न मानने पर दादी ने टी0वी0 को बंद कर दिया था। टी0वी0 बंद होने से नाराज बच्चे ने गुस्से में आकर अपनी दादी की हत्या कर दी। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले धारावाहिक बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क पर कितना गहरा दुष्प्रभाव डाल रहे हैं इसका एक उदाहरण केरल के इदुकी नामक स्थान पर देखने को मिला। वहाँ कक्षा पाँच की छात्रा ने टी0वी0 पर आत्महत्या का दृश्य देखा और उसकी नकल करने में उसकी जान चली गई। पत्थानम्थित्ता क्षेत्र में मंगलवार को आठ वर्ष की एक बच्ची टेलीविजन पर एक धारावाहिक देख रही थी। घर में माता-पिता नहीं थे, उसका पाँच वर्षीय भाई ही उसके साथ घर पर था। टी0वी0 पर आत्महत्या का दृश्य देख बच्ची को इसकी नकल करने की सूझी। दूसरे कमरे में उसने दरवाजा बंद कर लिया। काफी देर बाद जब वह बाहर नहीं आई तो भाई ने हल्ला मचाया। पड़ोसियों ने दरवाजा तोड़ा तो बच्ची फाँसी लगा चुकी थी।

(5) सी0एम0एस0 के फिल्म डिवीजन एवं दो रेडियो स्टेशनों में शैक्षिक कार्यक्रमों का निर्माण:

सी0एम0एस0 के बच्चों ने प्रतिज्ञा की है कि वे गन्दी फिल्में नहीं देखेंगे। केवल शैक्षिक फिल्में देखेंगे। शैक्षिक फिल्में निर्मित करने के उद्देश्य से सी0एम0एस0 ने फिल्म डिवीजन की स्थापना की है। सी0एम0एस0 द्वारा दो रेडियो स्टेशन भी स्थापित किये हैं। सी0एम0एस0 ने अत्यन्त उच्च कोटि की प्रेरणादायी अनेक बाल फिल्मों का निर्माण किया है। संसार में ऐसी सशक्त बाल फिल्मों का निर्माण आज तक नहीं हुआ है। समाज को हिंसा, सेक्स, रेप, हत्या, आत्महत्या जैसे अपराधिक मामलों की प्रेरणा देने वाले अश्लील चैनलों को तत्काल बंद किया जाये। ताकि आगे किसी माँ-बाप के जिगर के टुकड़ों प्रिय बेटे-बेटी को असमय मुरझाने से बचाया जा सके।

(6) प्रियजनों के मन में पनप रहे बुरे विचार को समय रहते पहचाने:

जीवन प्रभु का दिया है। किसी दूसरे की हत्या करना अथवा स्वयं आत्महत्या करना दोनों एक ही जैसी मनः स्थिति को दर्शाती हैं। और वह है ईश्वर से अलगाव। प्रभु की दृष्टि में ये दोनों ही स्थितियाँ पापपूर्ण हैं। बच्चे माता-पिता के लाड़ले बेटी-बेटे होते हैं। कोई अज्ञानी बालक या युवक आत्महत्या करके अपने परिजनों को जीवन भर के लिए अपराध बोध के बोझ तले रोते-बिलखते रहने के लिए छोड़ जाता है। हमारी आंखों में पड़ा मोह का पर्दा अपने प्रियजनों के मन में पनप रहे बुरे विचार को समय रहते देखने से रोके रखता है। बाद में वह बुरा विचार धीरे-धीरे परिपक्व हो जाता है। तब बहुत देर हो चुकी होती है।


(7) परिवार विश्व की सबसे छोटी एवं सशक्त इकाई है:

परिवार में मां की कोख, गोद तथा घर का आंगन बालक की प्रथम पाठशाला है। परिवार में सबसे पहले बालक को ज्ञान देने का उत्तरदायित्व माता-पिता का है। माता-पिता बच्चों को उनके बाल्यावस्था में शिक्षित करके उन्हें अच्छे तथा बुरे अथवा ईश्वरीय और अनिश्वरीय का ज्ञान कराते हैं। बालक परिवार में आंखों से जैसा देखता है तथा कानों से जैसा सुनता है वैसा बालक के अवचेतन मन में धारणा बनती जाती हैं। बालक की वैसी सोच तथा चिन्तन बनता जाता है। बालक की सोच आगे चलकर कार्य रूप में परिवर्तित होती है। परिवार में एकता व प्रेम या कलह, माता-पिता का अच्छा व्यवहार या बुरा व्यवहार जैसा बालक देखता है वैसे उसके संस्कार ढलना शुरू हो जाते हंै। अतः प्रत्येक बालक को उसकी प्रथम पाठशाला में ही प्रेम, दया, एकता, करूणा आदि ईश्वरीय गुणों की शिक्षा दी जानी चाहिए। परिवार विश्व की सबसे छोटी एवं सशक्त इकाई है। बिना इस इकाई में एकता स्थापित हुए समाज, देश और विश्व में एकता की बात करना बेईमानी होगी। यह विचार सारे विश्व के परिवारों में पारिवारिक एकता के महत्व की ओर ध्यान आकर्षित करता है।


(8) ईश्वरीय वातावरण वाले घरों के बच्चे संस्कारित तथा चरित्रवान होते हैं:

कहा गया है कि ‘ना सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा’ अर्थात वह सभा नहीं जहां बुजुर्ग न हो। इसी तरह वह परिवार भी नहीं जहां बुजुर्गों की छाया न हो। तीन पीढ़ियों अर्थात अतीत, वर्तमान तथा भविष्य को यथासंभव मिल-जुलकर साथ रहना चाहिए। इस स्वर्गिक वातावरण में बच्चों की देखरेख और बुजुर्गों की सेवा भी अच्छी होती है। परिवार में तीनों पीढ़ियों के बीच भावपूर्ण तथा न्यायपूर्ण संतुलन जरूरी है। ऐसे घरों के बच्चे संस्कारित तथा चरित्रवान होते हैं। बच्चों के साथ हंस-बोलकर तथा खेलकर बुजुर्ग प्रसन्न होते हैं और बच्चे अपने दादा-दादी, नाना-नानियों के लाड़-दुलार व परियों की कल्पनिक सुनहरे संसार में खोकर अपने को सुरक्षित और संतुष्ट महसूस करते हैं। हमें अपने बुजुर्गो के लिए एक दिन नहीं, तीन सौ पैंसठ दिन सोचना तथा यथाशक्ति कुछ न कुछ करते रहना हंै। तभी हमारे बच्चे भी हमारे साथ वैसा ही करेंगे।


(9) पारिवारिक एकता सम्पन्नता की वाहक है:

किसी परिवार में जहाँ एकता है उस परिवार के सभी कार्यकलाप बहुत ही सुन्दर तरीके से चलते हैं, उस परिवार के सभी सदस्य अत्यधिक उन्नति करते हैं। संसार में वे सबसे अधिक समृद्धशाली बनते हैं। ऐसे परिवारों के आपसी सम्बन्ध व्यवस्थित होते हैं, वे सुख-शान्ति का उपभोग करते हैं, वे निर्विघ्न और उनकी स्थितियाँ सुनिश्चित होती है। वे सभी की प्रेरणा के òोत बन जाते हैं। ऐसा परिवार दिन-प्रतिदिन अपने कद और अपने अटूट सम्मान में वृद्धि ही करता जाता है।


(10) स्कूलों की शिक्षा सारी वसुधा को कुटुम्ब बनाने वाली होनी चाहिए:

समाज में बढ़ रही घोर प्रतिस्पर्धा से नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है। संयुक्त परिवार टूटते चले जा रहे हैं। और हम सभी केवल भौतिकता की इस अंधी आंधी में बहते चले जा रहे हें। ऐसे में एक आधुनिक विद्यालय का यह सामाजिक उत्तरदायित्व है कि वे सारी वसुधा को एक कुटुम्ब बनाने जैसे चरित्र वाले बालकों का निर्माण करें। इसके लिए उन्हें आज के युग में सभी बच्चों को सारे धर्मो की मूल शिक्षाओं का ज्ञान देना चाहिए। बच्चों को बताना चाहिए कि ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है।


(11) संस्कारयुक्त पारिवारिक वातावरण के निर्णय प्रभु की इच्छाओं के अनुकूल होते हैं:

बालक की प्रथम पाठशाला घर है। घरों में बहस के बजाय मीठी भाषा में तथा प्रेमपूर्ण वातावरण में आपसी परामर्श हो और परिवारजन जिस निष्कर्ष पर पहुॅचे उसके बारे में यह सुनिश्चित कर लें कि वह परमात्मा को भी प्रसन्न करने वाला हो। कोई निर्णय ऐसा न हो जो परमात्मा की आध्यात्मिक शिक्षाओं के विरूद्ध हो। अनुशासित एवं संस्कारयुक्त पारिवारिक वातावरण में पले-बढ़े बालक ही विश्व शान्ति एवं विश्व एकता के स्वप्न को साकार कर विश्व का मार्गदर्शन कर सकते हैं।


(12) परिवार की एकता विश्व एकता की आधार शिला है:

विश्व को आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले जगत गुरू भारत की सभ्यता तथा संस्कृति का सारे विश्व में जोरदार प्रचार होना चाहिए। संयुक्त परिवार का आधार आध्यात्मिक शिक्षा है। पवित्र हृदय के बिना कोई भी एकता स्थायी नहीं हो सकती। भारत की सभ्यता तथा संस्कृति को जीवित रखने के लिए संयुक्त परिवार की परम्परा को सशक्त बनाना होगा। तभी हम सारी वसुधा को अन्तर्राष्ट्रीय कानून की डोर से बांधकर एक कुटुम्ब बनाने में सफल होंगे।

– डा. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं
संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ