कर्म के पांच हेतु (अध्याय 18 शलोक 13 से 18)
कर्म के पांच हेतु (अध्याय 18 शलोक 13 से 18)
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 18 शलोक 13
श्री भगवान बोले (THE LORD SAID):
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥18- 13॥
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 18 शलोक 14
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥18- 14॥ Hये पाँच हैं – अधिष्ठान, कर्ता, विविध प्रकार के करण, विविध प्रकार की चेष्टायें तथा देव। EIn respect of this, there are the prime mover, the several agents, the varied endeavours, the sustaining power, and likewise the fifth means that is providence.
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥18- 14॥ Hये पाँच हैं – अधिष्ठान, कर्ता, विविध प्रकार के करण, विविध प्रकार की चेष्टायें तथा देव। EIn respect of this, there are the prime mover, the several agents, the varied endeavours, the sustaining power, and likewise the fifth means that is providence.
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 18 शलोक 15
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥18- 15॥ Hमनुष्य अपने शरीर, वाणी अथवा मन से जो भी कर्म का आरम्भ करता है, चाहे वह न्याय पूर्ण हो या उसके विपरीत, यह पाँच उस कर्म के हेतु (कारण) होते हैं। EThese are the five causes of whatever action a man accomplishes with his mind, speech, and body, either in accordance with or even in contravention of scripture.
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥18- 15॥ Hमनुष्य अपने शरीर, वाणी अथवा मन से जो भी कर्म का आरम्भ करता है, चाहे वह न्याय पूर्ण हो या उसके विपरीत, यह पाँच उस कर्म के हेतु (कारण) होते हैं। EThese are the five causes of whatever action a man accomplishes with his mind, speech, and body, either in accordance with or even in contravention of scripture.
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 18 शलोक 16
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥18- 16॥ Hजो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि द्वारा केवल अपने आत्म को ही कर्ता देखता है (कर्म करने का एक मात्र कारण), वह दुर्मति सत्य नहीं देखता। EDespite this, however he who-out of his immature judgement-views the consummate, detached Self as the doer is dull-minded and he sees not.
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥18- 16॥ Hजो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि द्वारा केवल अपने आत्म को ही कर्ता देखता है (कर्म करने का एक मात्र कारण), वह दुर्मति सत्य नहीं देखता। EDespite this, however he who-out of his immature judgement-views the consummate, detached Self as the doer is dull-minded and he sees not.
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 18 शलोक 17
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥18- 17॥ Hजिस में यह भाव नहीं है की ‘मैंने किया है’ और जिस की बुद्धि लिपि नहीं है (शुद्ध है), वह इस संसार में (किसी जीव को) मार कर भी नहीं मारता और न ही (कर्म फल में) बँधता है। EThough he may slay, the man who is liberated from conceit and whose mind is unsullied is neither a killer nor bound by his action.
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥18- 17॥ Hजिस में यह भाव नहीं है की ‘मैंने किया है’ और जिस की बुद्धि लिपि नहीं है (शुद्ध है), वह इस संसार में (किसी जीव को) मार कर भी नहीं मारता और न ही (कर्म फल में) बँधता है। EThough he may slay, the man who is liberated from conceit and whose mind is unsullied is neither a killer nor bound by his action.
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 18 शलोक 18
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥18- 18॥ Hज्ञान, ज्ञेय (जाने जाने योग्य) औऱ परिज्ञाता – ये कर्म में प्रेरित करते हैं, और करण, कर्म और कर्ता – यह कर्म के संग्रह (निवास स्थान) हैं। EWhereas the way of securing knowledge, the worthwhile knowledge, and the knower constitute the threefold inspiration to action, the doer, the agents, and the action itself are the threefold constituents of action.
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥18- 18॥ Hज्ञान, ज्ञेय (जाने जाने योग्य) औऱ परिज्ञाता – ये कर्म में प्रेरित करते हैं, और करण, कर्म और कर्ता – यह कर्म के संग्रह (निवास स्थान) हैं। EWhereas the way of securing knowledge, the worthwhile knowledge, and the knower constitute the threefold inspiration to action, the doer, the agents, and the action itself are the threefold constituents of action.