श्रीवसुदेवजी

श्रीवसुदेवजी

परम भागवत वसुदेवजी यदुवंशके परम प्रतापी वीर शूरसेनके पुत्र थे| इनका विवाह देवककी सात कन्याओंसे हुआ था| रोहिणी भी इन्हींकी पत्नी थीं| देवकीजी देवककी सबसे छोटी कन्या थीं|

जब देवकीजीका विवाह वसुदेवजीके साथ सम्पन्न हुआ, तब उग्रसेनजीका ज्येष्ठ पुत्र कंस अपनी चचेरी बहन देवकीको स्नेहवश स्वयं रथसे पहुँचाने जा रहा था| मार्गमें आकाशवाणी हुई – ‘मूर्ख! जिस बहनको तू इतने स्नेहके साथ पहुँचाने जा रहा है, उसीकी आठवीं संतानके हाथोंसे तेरी मृत्यु होगी|’ मृत्युका भय शरीरसक्तको कायर बना देता है| कंसने तलवार खींच ली और देवकीको मारनेके लिये तैयार हो गया| वसुदेवजीने उसे समझाते हुए कहा – ‘राजकुमार! आप भोजवंशके होनहार वंशधर तथा अपने कुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले हैं| बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणोंकी सराहना करते हैं| एक तो यह स्त्री है, दूसरे आपकी छोटी बहन है| विवाहके शुभ अवसरपर इसकी हत्या आपको शोभा नहीं देती| जो जन्म लेते हैं, उनकी मृत्यु भी निश्चित होती है| आज हो या सौ वर्ष बाद-मृत्यु सृष्टिका निश्चित विधान है| इसे कोई भी टाल नहीं सकता| मनुष्यको ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जिससे उसे अपयशका पात्र बनना पड़े| तुम्हें देवकीसे कोई भय नहीं है, इसके पुत्रोंसे भय है| मैं तुम्हें इसकी प्रत्येक संतान देनेका वचन देता हूँ|’ कंसको वसुदेवजीके वचनोंपर विश्वास था| उसने देवकीको मारनेका विचार छोड़ दिया|

समय आनेपर देवकीने अपने प्रथम पुत्रको जन्म दिया| वसुदेवजीके लिये कोई भी त्याग दुष्कर नहीं था| वे जन्म लेते ही अपने प्राणप्रिय पुत्रको कंसके पास ले गये| कंसने उनकी सत्यनिष्ठाको देखकर पहले बालकको लौटा दिया, किंतु नारदजीके समझानेपर उसने फिर बालकको मार डाला और वसुदेव-देवकीको कारागारमैं डाल दिया| धीरे-धीरे वसुदेवजीके छ: पुत्र कंसकी क्रूरताके शिकार हो गये| सातवें गर्भमें बलरामजी आये और योगमायाने उन्हें रोहिणीके गर्भमें पहुँचा दिया| देवकीके आठवें गर्भसे जगत् के त्राणकर्ता भगवान् श्रीकृष्णका प्रादुर्भाव हुआ| भगवान् के आदेशसे वसुदेवजी उन्हें नन्दभवन पहुँचा आये और वहाँसे यशोदाजीकी नवजात कन्या ले आये| कंसने जब उसे मारना चाहा तो वह उसके हाथसे छूटकर आकाशमें चली गयी और उसके शत्रुके कहीं और प्रकट होनेकी सूचना देकर अष्टभुजारूपमें अन्तर्धान हो गयी|

गोकुलमें श्रीकृष्ण-बलरामको मिटानेके लिये कंसके द्वारा किये सभी प्रयत्न निष्फल हो गये| अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णके हाथों कंसका अन्त हुआ| भगवान् के पुनरागमनकी प्रतीक्षामें वसुदेव-देवकीकी दीर्घकालिक साधना पूर्ण हुई| श्रीकृष्णने अपने माता-पिताकी हथकड़ी-बेड़ी स्वयं काटी और उनके चरणोंमें गिर पड़े| चिरकालसे बिछुड़े अपने पुत्रोंको पाकर वसुदेवजीकी प्रसन्नता ठिकाना न रहा| भगवान् की प्रेमसे सनी हुई वाणी सुनकर वसुदेवजी उनके ऐश्वर्यको भूल गये और अपने हृदयके टुकड़ोंको छातीसे लगा लिया| वसुदेवजीके सौभाग्यकी समता किसीसे नहीं की जा सकती है| राम-श्याम पिता कहकर सदा उनका सम्मान करते थे और नित्य प्रात:काल उनकी चरण-वन्दना करते थे| कुरुक्षेत्रकी भूमिमें ऋषियोंने वसुदेवजीसे कहा – ‘श्रीकृष्ण ही साक्षात् पूर्ण ब्रह्म हैं|’ भगवान् श्रीकृष्णने भी अन्तमें अपने पिताको तत्त्वज्ञानका उपदेश दिया| जब भगवान् श्रीकृष्णने प्रभासक्षेत्रमें अपनी लीलाका संवरण किया, तब वसुदेवजीने भी उन्हींके साथ परमधामके लिये प्रस्थान किया|