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सहजता की महिमा – कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित

सहजता की महिमा

सहजता की महिमा: संत कबीर दास जी के दोहे व व्याख्या

1 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
सहज सहज सब कोई कहै,
सहज न चीन्हैं कोय |

जिन सहजै विषया तजै,
सहज कहावै सोय ||

व्याख्या: सहज – सहज सब कहते हैं, परन्तु उसे समझते नहीं जिन्होंने सहजरूप से विषय – वासनाओं का परित्याग कर दिया है, उनकी निर्विश्ये – स्थिति ही सहज कहलाती है|

2 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
जो कछु आवै सहज,
में सोई मीठा जान |

कड़वा लगै नीमसा,
जामें ऐचातान ||

व्याख्या: ऐ बोधवान! जो कुछ सहज में आ जाये उसे मीठा (उत्तम) समझो| जो छीना – झपटी से मिलता है, वे तो विवेकियों को नीम सा कड़वा लगता है|

3 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
सहज सहज सब कोई कहै,
सहज न चीन्हैं कोय |

पाँचों राखै पारतों,
सहज कहावै साय ||

व्याख्या: सहज सहक सब कहते हैं परन्तु सहज क्या है इसको नहीं जानते| विषयों में फैली हुई पाँचो ज्ञान इंद्रियों को जो अपने स्वाधीन रखता है, यह इन्द्रियजित अवस्था ही सहज अवस्था है|

4 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
सबही भूमि बनारसी,
सब निर गंगा होय |

ज्ञानी आतम राम है,
जो निर्मल घट होय ||

व्याख्या: उनके लिए काशी की भूमि या अन्ये भूमि व गंगा नदी या अन्ये नदियां सब बराबर हैं जो ह्रदय को पवित्र बनाकर ज्ञानी स्वरुप राम में स्थित हो गया|

5 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
अति का भला न बोलना,
अति की भली न चुप |

अति का भला न बरसना,
अति की भली न धूप ||

व्याख्या: बहुत बरसना भी ठीक नहीं होता है, और बहुत धूप होना भी लाभकर नहीं| इसी प्रकार बहुत बोलना अच्छा नहीं, बिलकुल चुप रहना भी अच्छा नहीं|

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