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भक्ति की महिमा – कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित

भक्ति की महिमा

भक्ति की महिमा: संत कबीर दास जी के दोहे व व्याख्या

1 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
भक्ति बीज पलटै नहीं,
जो जुग जाय अनन्त |

ऊँच नीच घर अवतरै,
होय सन्त का सन्त ||

व्याख्या: की हुई भक्ति के बीज निष्फल नहीं होते चाहे अनंतो युग बीत जाये | भक्तिमान जीव सन्त का सन्त ही रहता है चाहे वह ऊँच – नीच माने गये किसी भी वर्ण – जाती में जन्म ले |

2 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
भक्ति पदारथ तब मिलै,
तब गुरु होय सहाय |

प्रेम प्रीति की भक्ति जो,
पूरण भाग मिलाय ||

व्याख्या: भक्तिरूपी अमोलक वस्तु तब मिलती है जब यथार्थ सतगुरु मिलें और उनका उपदेश प्राप्त हो | जो प्रेम – प्रीति से पूर्ण भक्ति है, वह पुरुषार्थरुपी पूर्ण भाग्योदय से मिलती है |

3 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
भक्ति जो सीढ़ी मुक्ति की,
चढ़ै भक्त हरषाय |

और न कोई चढ़ि सकै,
निज मन समझो आय ||

व्याख्या: भक्ति मुक्ति की सीडी है, इसलिए भक्तजन खुशी – खुशी उसपर चदते हैं | आकर अपने मन में समझो, दूसरा कोई इस भक्ति सीडी पर नहीं चढ़ सकता | (सत्य की खोज ही भक्ति है)

4 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
भक्ति बिन नहिं निस्तरे,
लाख करे जो कोय |

शब्द सनेही होय रहे,
घर को पहुँचे सोय ||

व्याख्या: कोई भक्ति को बिना मुक्ति नहीं पा सकता चाहे लाखो लाखो यत्न कर ले | जो गुरु के निर्णय वचनों का प्रेमी होता है, वही सत्संग द्वरा अपनी स्थिति को प्राप्त करता है |

5 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
भक्ति गेंद चौगान की,
भावै कोइ लै लाय |

कहैं कबीर कुछ भेद नहिं,
कहाँ रंक कहँ राय ||

व्याख्या: भक्ति तो मैदान में गेंद के समान सार्वजनिक है, जिसे अच्छी लगे, ले जाये | गुरु कबीर जी कहते हैं कि, इसमें धनी – गरीब, ऊँच – नीच का भेदभाव नहीं है |

6 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
कबीर गुरु की भक्ति बिन,
अधिक जीवन संसार |

धुँवा का सा धौरहरा,
बिनसत लगै न बार ||

व्याख्या: कबीर जी कहते हैं कि बिना गुरु भक्ति संसार में जीना धिक्कार है | यह माया तो धुएं के महल के समान है, इसके खतम होने में समय नहीं लगता |

7 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
जब लग नाता जाति का,
तब लग भक्ति न होय |

नाता तोड़े गुरु बजै,
भक्त कहावै सोय ||

व्याख्या: जब तक जाति – भांति का अभिमान है तब तक कोई भक्ति नहीं कर सकता | सब अहंकार को त्याग कर गुरु की सेवा करने से गुरु – भक्त कहला सकता है |

8 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
भाव बिना नहिं भक्ति जग,
भक्ति बिना नहीं भाव |

भक्ति भाव एक रूप हैं,
दोऊ एक सुभाव ||

व्याख्या: भाव (प्रेम) बिना भक्ति नहीं होती, भक्ति बिना भाव (प्रेम) नहीं होते | भाव और भक्ति एक ही रूप के दो नाम हैं, क्योंकि दोनों का स्वभाव एक ही है |

9 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
जाति बरन कुल खोय के,
भक्ति करै चितलाय |

कहैं कबीर सतगुरु मिलै,
आवागमन नशाय ||

व्याख्या: जाति, कुल और वर्ण का अभिमान मिटाकर एवं मन लगाकर भक्ति करे | यथार्थ सतगुरु के मिलने पर आवागमन का दुःख अवश्य मिटेगा |

10 दोहा (भक्त कबीर दास जी)
कामी क्रोधी लालची,
इतने भक्ति न होय |

भक्ति करे कोई सुरमा,
जाति बरन कुल खोय ||

व्याख्या: कामी, क्रोधी और लालची लोगो से भक्ति नहीं हो सकती | जाति, वर्ण और कुल का मद मिटाकर, भक्ति तो कोई शूरवीर करता है |

सति की म
मन की मह