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मैं कमली आं – काफी भक्त बुल्ले शाह जी

मैं कमली आं

हाज़ी लोक मक्के नूं जांदे,
मेरा रांझा माही मक्का,
नी मैं कमली आं|

मैं ते मंग रांझे दी होई आं,
मेरा बाबल करदा धक्का,
नी मैं कमली आं|

हाज़ी लोक मक्के नूं जांदे,
मेरे घर विच नौशौह मक्का,
नी मैं कमली आं|

विच्चे हाज़ी विच्चे ग़ाज़ी,
विच्चे चोर उचक्का,
नी मैं कमली आं|

हाज़ी लोक मक्के नूं जांदे,
असां जाणा तख्त हज़ारे,
नी मैं कमली आं|

जित वल यार उते वल क़ाबा,
भावें फोल किताबां चारे,
नी मैं कमली आं|

मैं पगली हूं

अन्तमुर्खी हो जाने पर साधक के लिए ज्ञान, तीर्थ सब-कुछ परमप्रिय प्रभु हो जाता है| यही बुल्लेशाह ने स्वयं को पगली बताकर इस काफ़ी में व्यक्त किया है| लोग हज के लिए मक्के की ओर जाते हैं, लेकिन मुझे तो मेरा प्रिय रांझा ही मक्का प्रतीत होता है| दुनिया की दृष्टि में मैं तो हूं ही पगली|

रांझे के साथ मेरा विवाह निश्चित है, मेरा बाबुल कुछ और ही ज़ोरजबर्दस्ती कर रहा है| पर मैं तो पगली हूं| अपनी बात पर ही अड़ी हूं|

हाजी लोग तो इज के लिए मक्के की ओर जाते हैं, लेकिन मुझे तो अपने घर में मेरा दूल्हा (मुर्शिद) ही मक्का प्रतीत होता है, तो उसी के प्रेम में पगली हूं|

मेरे अन्दर ही हाजी हैं, ग़ाज़ी हैं (शुभ गुण हैं) और मेरे अन्दर ही चोर उचक्के भी हैं (दुर्गुण हैं) री मैं तो पगली हूं|

हाजी लोग तो मक्के की ओर जा रहे हैं, लेकिन मैं तो तख्त हज़ारे की ओर ही जाऊंगी, क्योंकि मैं तो हूं ही पगली|

जिस ओर मेरा प्रिय है मेरे लिए तो उसी ओर काबा है| यह ऐसा सत्य है, जो चारों किताबों में मिलेगा| अरी, मैं तो पगली हूं|