Homeभक्त बुल्ले शाह जी काफियांक्यों ओह्ले बैह् बैह् झाकीदा – काफी भक्त बुल्ले शाह जी

क्यों ओह्ले बैह् बैह् झाकीदा – काफी भक्त बुल्ले शाह जी

क्यों ओह्ले बैह् बैह् झाकीदा

क्यों ओह्ले बैह् बैह् झाकीदा?
एह पर्दा किस तों राखी दा?| टेक|

तुसीं आप ही आये सारे हो,
क्यों कहिये तुसीं निआरे हो,
आये अपने आप नज़्ज़ारे हो,
विच बरज़ख़ रख्या ख़ाकी दा|

जिस तन विच इश्क़ दा सोज़ होइआ,
ओह बेख़ुदा ते बेहोश होइआ,
ओह क्यों कर रहे ख़मौश होइआ,
जिस प्याला पीता साक़ी दा|

तुसीं आप असां वल धाये हो,
कद रहंदे छपे छपाये हो,
तुसीं शाह इनायत बन आये हो,
हुण ला ला नैन झमाकी दा|

बुल्ल्हा शाह तन दी भाठी कर,
अग बाल हड्डां तन माटी कर,
एह शौक मुहब्बत बाक़ी कर,
एह मधवा इस बिध छाक़ी दा|

ओट में बैठे ताक-झांक

नवयुवती की भांति माया का आवरण डाले प्रभु सब रचना देख रहा है, इसी बात को बुल्लेशाह ने इस काफ़ी में बयान करते हुए कहा है कि क्यों ओट में बैठकर ताक-झांक करते हो? अरे यह पर्दा तुम किससे रखते हो?

हर स्थान पर तुम स्वयं उपस्थित हो, तब भला मैं यह कैसे कहूं कि तुम संसार से अलग हो| तुम स्वयं ही अपना दर्शन करने आए हो, अब बीच में ख़ाकी शरीर की आड़ कैसी?

जिस शरीर में इश्क़ का सरूर फैला हो, वह अपने-आप को भुला जाता है, बेहोश हो जाता है| वह भला चुप होकर कैसे बैठ सकता है, जिसने साक़ी (मुर्शिद) से प्रेम का प्याला लेकर पिया हो!

तुम स्वयं हमारी ओर दौड़कर आए हो, अब भला तुम कैसे छुपे हुए रह सकते हो? तुमने मुर्शिद शाह इनायत का रूप ले लिया है, अब नयन मिलाकर बार-बार आंखें झपकते हो, कभी आंखें मूंदते हो तो कभी खोलते हो, आख़िर यह क्या खेल है|

बुल्लेशाह अपने तन को भट्ठी बना, उस इश्क़ की आग में तन को तपा, तन को मिट्टी (राख) की तरह मिटा दे, केवल अपने प्रेम के मूल भाव को शेष रहने दे, प्रेम-मधु चखने का यही ढंग है|