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सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता – अध्याय 12 शलोक 1 से 20

सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 1 से 20

सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 1

अर्जुन उवाच (Arjun Said):

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥1॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 1 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiदोनों में से कौन उत्तम हैं – जो भक्त सदा आपकी भक्ति युक्त रह कर आप की उपासना करते हैं, और जो अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं।

EnWhich of the two kinds of steadfast devotees, they who always worship you in your embodied form and the others who meditate upon your imperishable, unmanifest Spirit, are superior in their mastery of yog?
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 2

श्रीभगवानुवाच (THE LORD SAID):

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥2॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 2 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiजो भक्त मुझ में मन को लगा कर निरन्तर श्रद्धा से मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मत में उत्तम हैं।

EnI believe them to be the most superior of all yogi who always meditate upon me with concentration and worship me (the embodied, manifest God) with true faith.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 3, 4

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥3॥

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥4॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 3, 4 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiजो अक्षर, अनिर्देश्य (जिसके स्वरुप को बताया नहीं जा सकता), अव्यक्त, सर्वत्र गम्य (हर जगह उपस्थित), अचिन्तीय, सदा एक स्थान पर स्थित, अचल और ध्रुव (पक्का, न हिलने वाला) की उपासना करते हैं। इन्द्रियों के समूह को संयमित कर, हर ओर हर जगह समता की बुद्धि से देखते हुये, सभी प्राणीयों के हितकर, वे भी मुझे ही प्राप्त करते हैं।

EnAnd they who restrain all their senses well, always adore the Supreme Spirit who is beyond thought, all-pervading, indefinable, filled with equanimity, immutable and immovable, and formless and indestructible, with total concentration, and who serve all beings viewing them with an equal eye, attain to me.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 5

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥5॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 5 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiलेकिन उन के पथ में कठिनाई ज़्यादा है, जो अव्यक्त में चित्त लगाने में आसक्त हैं क्योंकि देह धारियों के लिये अव्यक्त को प्राप्त करना कठिन है।

EnAchievement of perfection by men who are devoted to the formless God is more arduous, because they who feel conceited because of their physical bodies find it more difficult to realize the unmanifest.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 6, 7

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥6॥

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥7॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 6, 7 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiलेकिन जो सभी कर्मों को मुझ पर त्याग कर मुझी पर आसार हुये (मेरी प्राप्ति का लक्ष्य किये) अनन्य भक्ति योग द्वारा मुझ पर ध्यान करते हैं और मेरी उपासना करते हैं। ऍसे भक्तों को मैं बहुत जल्दि (बिना किसी देर किये) ही इस मृत्यु संसार रुपी सागर से उद्धार करने वाला बनता हूँ जिनका चित्त मुझ ही में लगा हुआ है (मुझ में ही समाया हुआ है)

EnAnd, O Parth, I soon deliver my affectionate devotees who have set their mind on me and who, coming under my shelter and dedicating all their action to me, ever contemplate and worship me-the manifest God-with unshaken intentness, from the abyss of the mortal world.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 8

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥8॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 8 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiइसलिये, अपने मन को मुझ में ही स्थापित करो, मुझ में ही अपनी बुद्धि को लगाओ, इस प्रकार करते हुये तुम केवल मुझ में ही निवास करोगे (मुझ में ही रहोगे), इस में को संशय नहीं है।

EnThere is no doubt whatsoever that you will dwell in me if you devote and apply your mind and intellect to me.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 9

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय॥9॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 9 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiऔर यदि तुम अपने चित्त को मुझ में स्थिरता से स्थापित (मुझ पर अटूट ध्यान) नहीं कर पा रहे हो, तो अभ्यास (भगवान में चित्त लगाने के अभ्यास) करो और मेरी ही इच्छा करो हे धनंजय।

EnIf you cannot firmly set your mind on me; O Dhananjay, seek me by the yog of incessant practice (abhyas-yog).
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 10

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥10॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 10 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiऔर यदि तुम मुझ में चित्त लगाने का अभ्यास करने में भी असमर्थ हो, तो मेरे लिये ही कर्म करने की ठानो। इस प्रकार, मेरे ही लिये कर्म करते हुये तुम सिद्धि (योग सिद्धि) प्राप्त कर लोगे।

EnIn case you are incapable of even following the way of practice, you may yet secure fulfillment by the performance of actions which are meant only for me.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 11

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥11॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 11 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiऔर यदि, तुम यह करने में भी सफल न हो पाओ, तो मेरे बताये योग का आश्रय लेकर अपने मन और आत्मा पर संयम कर तुम सभी कर्मों के फलों को छोड़ दो (त्याग कर दो)।

EnIn case you fail to accomplish even this, abandon all the fruits of action and take refuge in my yog with a thoroughly subdued mind.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 12

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥12॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 12 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiअभ्यास से बढकर ज्ञान (समझ आ जाना) है, ज्ञान (समझ) से बढकर ध्यान है। और ध्यान से भी उत्तम कर्ण के फल का त्याग है, क्योंकि ऍसा करते ही तुरन्त शान्ति प्राप्त होती है।

EnSince knowledge is superior to practice, meditation better than knowledge, and abandonment of the fruits of action higher than meditation, renunciation is soon rewarded with peace.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 13, 14

 श्रीभगवानुवाच (THE LORD SAID):

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी॥13॥

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥14॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 13, 14 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiजो सभी जीवों के प्रति द्वेष-हीन है, मैत्री (मित्र भाव) है, करुणशाल है। जो ‘मैं और मेरे’ के विचारों से मुक्त है, अहंकार रहित है, सुख और दुखः को एक सा देखता है, जो क्षमी है। जो योगी सदा संतुष्ट है, जिसका अपने आत्म पर काबू है, जो दृढ निश्चय है। जो मन और बुद्धि से मुझे अर्पित है, ऍसा मनुष्य, मेरा भक्त, मुझे प्रिय है।

EnThe devotee who has malice towards none and loves all, who is compassionate and free from attachment and vanity, who views sorrow and joy equally and is forgiving, endowed with steady yog, contented alike with both profit and loss, restrained in mind, and dedicated to me with firm conviction, is dear to me.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 15

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥15॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 15 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiजिससे लोग उद्विचित (व्याकुल, परेशान) नहीं होते (अर्थात जो किसी को परेशान नहीं करता, उद्विग्न नहीं देता), और जो स्वयं भी लोगों से उद्विजित नहीं होता, जो हर्ष, ईर्षा, भय, उद्वेग से मुक्त है, ऍसा मनुष्य मुझे प्रिय है।

EnThe devotee who does not upset anyone, nor is upset by anyone, and who is free from the contradictions of joy, envy, and fear, is dear to me.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 16

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥16॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 16 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiजो आकाङ्क्षा रहित है, शुद्ध है, दक्ष है, उदासीन (मतलब रहित) है, व्यथा रहित है, सभी आरम्भों का त्यागी है, ऍसा मेरी भक्त मुझे प्रिय है।

EnThe devotee who is emancipated from desire, pure, dexterous at his task, impartial, free from sorrow, and who has achieved the state of actionlessness, is dear to me.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 17

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥17॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 17 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiजो न प्रसन्न होता है, न दुखी (द्वेष) होता है, न शोक करता है और न ही आकाङ्क्षा करता है। शुभ और अशुभ दोनों का जिसने त्याग कर दिया है, ऍसा भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है।

EnThe devotee who is neither joyous nor envious, neither troubled nor concerned, and who has given up all good and evil actions, is dear to me.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 18, 19

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥18॥

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥19॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 18, 19 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiजो शत्रु और मित्र के प्रति समान है, तथा मान और अपमान में भी एक सा है, जिसके लिये सरदी गरमी एक हैं, और जो सुख और दुख में एक सा है, हर प्रकार से संग रहित है। जो अपनी निन्दा और स्तुति को एक सा भाव देता है (एक सा मानता है), जो मौनी है, किसी भी तरह (थोड़े बहुत में) संतुष्ट है, घर बार से जुड़ा नहीं है। जो स्थिर मति है, ऍसा भक्तिमान नर मुझे प्रिय है।

EnThe steady worshipper, who regards friends and foes, honour and dishonour, cold and heat, happiness and sorrow, as equal, and who is detached from the world, indifferent to slander and praise, meditative, contented with any manner of physical sustenance, and free from infatuation for the place where he dwells, is dear to me.
सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय 12 शलोक 20

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥20॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय 12 शलोक 20 का हिन्दी और English में अनुवाद
Hiऔर जो श्रद्धावान भक्त मुझ ही पर परायण (मुझे ही लक्ष्य मानते) हुये, इस बताये गये धर्म अमृत की उपासना करते हैं (मानते हैं और पालन करते हैं), ऍसे भक्त मुझे अत्यन्त (अतीव) प्रिय हैं।

EnAnd the devotees who rest in me and taste well the aforesaid nectar of dharm in a spirit of selflessness are the dearest to me.
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