Homeभगवान हनुमान जी की कथाएँश्रीराम भक्त के बंधन में (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

श्रीराम भक्त के बंधन में (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

श्रीराम भक्त के बंधन में (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) - शिक्षाप्रद कथा

श्रीराम के अश्वमेध का अश्व भ्रमण करता हुआ प्रख्यात कुंडलपुर के समीप पहुंचा| वहां के अत्यंत धर्मात्मा नरेश का नाम सुरथ था| वे वीर, धीर, बुद्धिमान एवं परम पराक्रमी तो थे ही, भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त भी थे| उनकी समस्त प्रजा भी श्रीराम की भक्त सद्धर्मपरायण थी| उनके राज्य के घर-घर में अश्वत्थ और तुलसी की पूजा तथा भगवान श्रीसीताराम की कथा होती थी| अनीति और अधर्म के लिए वहां कोई स्थान नहीं था| पाप परायण नर-नारी उस राज्य में रह ही नहीं सकते थे|

एक बार विश्ववंदित यमराज ने उनकी श्रीराम भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें इच्छानुसार वर प्रदान किया था – “राजन, भगवान श्रीराम के दर्शन बिना तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी और तुम मुझसे सदा निर्भय रहोगे|” अपने नगर के समीप चंदन से चर्चित अत्यंत मनोहर अश्व को देखकर सेवकों ने महाराज सुरथ को सूचना दी| हरिभक्ति परायण नरेश ने अश्व को पकड़ने का आदेश देते हुए कहा – “अहा, हम सभी धन्य हैं, क्योंकि हमें भगवान श्रीराम के मुखारविंद का दर्शन प्राप्त होगा| इस अश्व को मैं तभी छोडूंगा, जब श्रीराम यहां स्वयं उपस्थित होकर मुझे कृतार्थ करेंगे|”

अश्व पकड़ लिया गया| धर्मात्मा राजा सुरथ की श्रीराम चरणारविंद में अनुपम भक्ति का परिचय पाकर शत्रुघ्न ने उनके समीप इसके रूप में अंगद जी को भेजा| महाराज सुरथ ने अंगद से स्पष्ट शब्दों में कह दिया – “मैं अपने प्राणधन श्रीराम के दर्शन करना चाहता हूं| इस अभिलाषा के पूर्ण हुए बिना मैं क्षत्रिय-धर्म का पालन करने से पीछे नहीं हटूंगा|”

अंगद जी ने राजा से अपने पक्ष के वीरों की वीरता का गुणगान करते हुए कहा – “राजन्! त्रिकुट पर्वत सहित समूची लंका को क्षणभर में फूंक देने वाले दुष्ट बुद्धि असुरराज रावण के परम पराक्रमी पुत्र अक्षय कुमार का प्राण हरण कर लेने वाले श्री रघुनाथ जी के चरण कमलों के अनन्य मधुकर हनुमान जी के पराक्रम से तो तुम परिचित ही होंगे| वे इस अश्व के रक्षक हैं| हनुमान जी का चरित्र बल कैसा है, इस बात को श्रीराम ही जानते हैं, दूसरा कोई मूढ़ बुद्धि मनुष्य नहीं जानता| इसीलिए अपने प्रिय सेवक इन पवन कुमार को वे अपने मन से तनिक भी नहीं बिसारते| तुम्हें यह सब भली-भांति सोचकर निर्णय लेना चाहिए|”

राजा सुरथ ने कहा – “वानरराज! यदि मैं मन, वाणी और क्रिया द्वारा परम प्रभु श्रीराम का स्मरण, चिंतन और पूजन करता हूं तो वे करुणानिधान स्वयं पधारकर मुझे कृतार्थ करें, अन्यथा महाबली श्रीराम भक्त हनुमान, शत्रुघ्न जी और भरत नंदन पुष्कल आदि मुझे बलपूर्वक बांधकर अश्व ले जाएं| तुम मेरा यह निश्चय शत्रुघ्न की सेवा में निवेदन कर दो|”
अंगद के लौटते ही युद्ध की तैयारी हो गई| उधर राजा सुरथ अपने अनन्य वीर सेनापति के संरक्षण में विशाल वाहिनी एवं अपने वीर चंपक, मोहक, रिपुंजय, दुर्वार, प्रतापी, बलमोदक, हर्यक्ष, सहदेव, भूरिदेव तथा असूतापन नामक दस पुत्रों के साथ जो युद्ध में शत्रु का मान-मर्दन करने वाले थे, डट गए| भयंकर युद्ध प्रारंभ हो गया| भरतनंदन पुष्कल सुरथ कुमार चंपक के साथ युद्ध करने लगे|

पुष्कल और चंपक दोनों वीर थे| दोनों ही एक-दूसरे की वीरता एवं युद्ध में दक्षता की प्रशंसा करते हुए युद्ध कर रहे थे, किंतु चंपक ने पुष्कल को बांधकर अपने रथ पर बैठा लिया|

शत्रुघ्न की सेना में हाहाकार मचते देखकर हनुमान जी कुपित होकर चंपक के सम्मुख पहुंच गए| उन्होंने चंपक पर कितने ही वृक्ष एवं शिलाओं से आक्रमण किया, किंतु श्रीरघुनाथ जी का स्मरण करते हुए चंपक ने उन सबको तिल सरीखे काट गिराया| तब हनुमान जी अत्यधिक क्रुद्ध हो गए और चंपक को पकड़कर आकाश मार्ग में उड़ गए| वहां उन्होंने उसका पैर पकड़कर पृथ्वी पर जोर से पटक दिया| धर्मात्मा राजा सुरथ का धार्मिक वीर पुत्र चंपक धरती पर गिरते ही घायल होकर मुर्च्छित हो गया|

हनुमान जी राजा सुरथ और उनके पुत्रों तथा उनकी समस्त प्रजा की श्रीराम के चरणाविंद की भक्ति से परिचित थे| महाराज सुरथ श्रीराम के मुखचंद्र का दर्शन प्राप्त कर लें, वह वे हृदय से चाहते थे, पर अश्व की रक्षा के लिए कर्तव्य पालन भी आवश्यक था| उन्होंने देखा कि उनके सम्मुख राजा सुरथ ने हनुमान जी से कहा – “कपिंद्र! निश्चय ही तुम महावीर और मेरे प्रभु के अनन्य भक्त हो, किंतु मैं सत्य कहता हूं कि मैं तुम्हें बांधकर अपने नगर ले जाऊंगा| तुम सावधान हो जाओ|”

अपने जीवन सर्वस्व को प्राण समझने वाले महाराज सुरथ को देखकर हनुमान जी मन-ही-मन मुदित हुए| उन्होंने कहा – “राजन्! तुम श्रीराम के चरणों का चिंतन करने वाले हो और हम लोग भी उन्हीं के सेवक हैं| यदि तुम मुझे बांध लोगे तो मेरे प्रभु बलपूर्वक तुम्हारे हाथ से छुटकारा दिलाएंगे| वीर, तुम्हारे मन में जो बात है, उसे पूर्ण करो| अपनी प्रतिज्ञा सत्य करो| वेद कहते हैं कि जो श्रीराम का स्मरण करता है, वह दुख से पार हो जाता है|”

महाराज सुरथ ने पवनकुमार की प्रशंसा करते हुए अपने तीक्ष्णतम बाणों से उन्हें घायल कर दिया| हनुमान जी ने कुपित होकर राजा का धनुष पकड़कर तोड़ दिया| राजा ने दूसरा धनुष उठाया ही था कि पवनपुत्र ने उसे भी तोड़ दिया| इस प्रकार उन्होंने राजा के अस्सी धनुष और उनचास रथ नष्ट कर दिए| यह देखकर सुरथ ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, किंतु हनुमान जी हसंते हुए उसे भी निगल गए| तब महाराज सुरथ ने श्रीराम का स्मरण कर रामास्त्र का प्रयोग करके हनुमान जी को बांध लिया| बंधते समय हनुमान जी ने कहा – “राजन्! तुमने मेरे स्वामी के ही अस्त्र से मुझे बांध दिया है| मैं उसका आदर करता हूं| अब तुम मुझे अपने नगर ले चलो|”

उदार शिरोमणि भक्तराज हनुमान जी ने अपने प्रभु के अस्त्र के समान एवं भक्ताग्रमण्य सुरथ के हित के लिए बंधन स्वीकार कर लिया| हनुमान जी को बंधते देखकर कुपित पुष्कल राजा के सम्मुख पहुंचकर युद्ध करने लगे| किंतु राजा के तीक्ष्ण बाणों से वे भी मुर्च्छित हो गए| इसी प्रकार शत्रुघ्न एवं सूग्रीव आदि भी राजा के तीक्ष्ण बाणों से घायल होकर मुर्च्छित हो गए| महाराज सुरथ विजयी हुए| उन्होंने शत्रुघ्न जी के पक्ष के प्रमुख वीरों को रथ में बैठाया और प्रसन्न मन से नगर की ओर चल पड़े|

राजसभा में बैठकर राजा सुरथ ने बंधे हनुमान जी से कहा – “पवनकुमार! अब तुम अपनी मुक्ति के लिए दयामय श्रीराम का स्मरण करो|”

बंधनयुक्त हनुमान जी ने अपने समीप पक्ष के सभी प्रधान वीरों को बंधा देखकर श्रीराम का स्मरण करते हुए मन-ही-मन उनसे प्रार्थना की| प्राणप्रिय पवनकुमार की प्रार्थना सुनते ही परमप्रभु श्रीराम तुरंत पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर तीव्रतम गति से चलकर वहां पहुंचे| हनुमान जी ने देखा कि मेरे प्रभु श्रीराम आ गए| उनके पीछे लक्ष्मण, भरत एवं वीतराग ऋषियों के समुदाय को देखकर दयामय पवननंदन ने गद्गद कंठ से भाग्यवान महाराज सुरथ से कहा – “राजन्! देखो, भक्तों को संकट से मुक्त करने वाले मेरे प्राण सर्वस्व श्रीराम हमें बंधन मुक्त कराने आ गए हैं|”

हनुमान जी का संकेत प्राप्त होते ही महाराज सुरथ प्रभु के चरणों में लोटकर बारंबार प्रणाम करने लगे| उन्होंने प्रभु के परम पावन चरणों को अपने प्रेमाश्रुओं से धो दिया और जब दयाधाम श्रीराम ने चतुर्भुज रूप धारण कर राजा सुरथ को छाती से लगा लिया| तब हनुमान जी के नेत्रों से आनंदाश्रु प्रवाहित होने लगे| प्रभु श्रीराम ने राजा से कहा – “राजन्! तुमने यशस्वी क्षत्रिय-धर्म का पालन कर बड़ा उत्तम कार्य किया है|”

श्रीराम की दयादृष्टि से हनुमान जी आदि सभी वीर बंधन से मुक्त और समस्त मुर्च्छित तथा मृर्त योद्धा जीवित हो गए| राजा सुरथ के आनंद की सीमा न थी| उन्होंने पुत्रों सहित हर्षोल्लासपूर्वक प्रभु की अर्चना की| राजा, मंत्री, राजा के पुत्र, सैनिक एवं समस्त नागरिक भगवान श्रीराम एवं उनके अनन्य भक्त हनुमान जी के दर्शन कर धन्य हो गए| सबने अपना-अपना जन्म और जीवन सफल कर लिया|

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